नासिका के स्वर विज्ञान का महत्व
::::::::::::::::::स्वर विज्ञान :::::::::::::::::::
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पृथ्वी पर पाए जाने वाले लगभग सभी जीवमात्र ,यहाँ तक की वनस्पति के लिए जीवन का आधार नाक से ली जाने वाली प्राणवायु है |सभी जीव विभिन्न प्रकार से इस जीवनदायी वायु को ग्रहण करते हैं ,इसी से उनमे जीवन की समस्त क्रियाओ और ऊर्जा उत्पादन होता है ,,इसका ग्रहण करना बंद होने पर जीव मृत हो जाता है |जल बिना तो जीवन कुछ दिनों तक संभव है किन्तु श्वांस बिना मिनटों भी संभव नहीं है |वायु को जीवमात्र द्वारा नासिका द्वारा ग्रहण किया जाता है |इसके ग्रहण करने की प्रकृति का बहुत बड़ा महत्व है |किस प्रकार किस ओर से वायु ग्रहण हो रही है इसका जीव पर गंभीर प्रभाव पड़ता है |विशिष्ट प्रकार से ग्रहण ही प्राणायाम का आधार है ,कुंडलिनी की ऊर्जा का स्रोत है |योग में इसे मूर्धन्य स्थान प्राप्त है |इसकी इन सब विशेषताओं को जानना ही स्वर विज्ञान है | स्वर विज्ञान को जानने वाला कभी भी विपरीत परिस्थितियों में नहीं फँसता और फँस भी जाए तो आसानी से विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाकर बाहर निकल जाता है। स्वर विज्ञान एक बहुत ही आसान विद्या है। इस विद्या को प्रसिद्ध स्वर साधक योगीराज यशपालजी ने 'विज्ञान' कहकर सुशोभित किया है। इनके अनुसार स्वरोदय, नाक के छिद्र से ग्रहण किया जाने वाला श्वास है, जो वायु के रूप में होता है। श्वास ही जीव का प्राण है और इसी श्वास को स्वर कहा जाता है।
स्वर के चलने की क्रिया को उदय होना मानकर स्वरोदय कहा गया है तथा विज्ञान, जिसमें कुछ विधियाँ बताई गई हों और विषय के रहस्य को समझने का प्रयास हो, उसे विज्ञान कहा जाता है। स्वरोदय विज्ञान एक आसान प्रणाली है, जिसे प्रत्येक श्वास लेने वाला जीव प्रयोग में ला सकता है। स्वरोदय अपने आप में पूर्ण विज्ञान है। इसके ज्ञान मात्र से ही व्यक्ति अनेक लाभों से लाभान्वित होने लगता है। इसका लाभ प्राप्त करने के लिए आपको कोई कठिन गणित, साधना, यंत्र-जाप, उपवास या कठिन तपस्या की आवश्यकता नहीं होती है। आपको केवल श्वास की गति एवं दिशा की स्थिति ज्ञात करने का अभ्यास मात्र करना है। यह विद्या इतनी सरल है कि अगर थोड़ी लगन एवं आस्था से इसका अध्ययन या अभ्यास किया जाए तो जीवनपर्यन्त इसके असंख्य लाभों से अभिभूत हुआ जा सकता है। सर्वप्रथम हाथों द्वारा नाक के छिद्रों से बाहर निकलती हुई श्वास को महसूस करने का प्रयत्न कीजिए। देखिए कि कौन से छिद्र से श्वास बाहर निकल रही है। स्वरोदय विज्ञान के अनुसार अगर श्वास दाहिने छिद्र से बाहर निकल रही है तो यह सूर्य स्वर होगा। इसके विपरीत यदि श्वास बाएँ छिद्र से निकल रही है तो यह चंद्र स्वर होगा एवं यदि जब दोनों छिद्रों से निःश्वास निकलता महसूस करें तो यह सुषुम्ना स्वर कहलाएगा। श्वास के बाहर निकलने की उपरोक्त तीनों क्रियाएँ ही स्वरोदय विज्ञान का आधार हैं। सूर्य स्वर पुरुष प्रधान है। इसका रंग काला है। यह शिव स्वरूप है, इसके विपरीत चंद्र स्वर स्त्री प्रधान है एवं इसका रंग गोरा है, यह शक्ति अर्थात् पार्वती का रूप है। इड़ा नाड़ी शरीर के बाईं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दाहिनी तरफ अर्थात् इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर स्थित रहता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः दोनों ओर से श्वास निकले वह सुषम्ना स्वर कहलाएगा।
स्वर को पहचानने की सरल विधियाँ
(1) शांत भाव से मन एकाग्र करके बैठ जाएँ। अपने दाएँ हाथ को नाक छिद्रों के पास ले जाएँ। तर्जनी अँगुली छिद्रों के नीचे रखकर श्वास बाहर फेंकिए। ऐसा करने पर आपको किसी एक छिद्र से श्वास का अधिक स्पर्श होगा। जिस तरफ के छिद्र से श्वास निकले, बस वही स्वर चल रहा है।
(2) एक छिद्र से अधिक एवं दूसरे छिद्र से कम वेग का श्वास निकलता प्रतीत हो तो यह सुषुम्ना के साथ मुख्य स्वर कहलाएगा।
(3) एक अन्य विधि के अनुसार आईने को नासाछिद्रों के नीचे रखें। जिस तरफ के छिद्र के नीचे काँच पर वाष्प के कण दिखाई दें, वही स्वर चालू समझें।
स्वर विज्ञान अपने आप में दुनिया का महानतम ज्योतिष विज्ञान है जिसके संकेत कभी गलत नहीं जाते। शरीर की मानसिक और शारीरिक क्रियाओं से लेकर दैवीय सम्पर्कों और परिवेशीय घटनाओं तक को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाला स्वर विज्ञान दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है। स्वर विज्ञान का सहारा लेकर आप जीवन को नई दिशा दृष्टि दे सकते है |.दिव्य जीवन का निर्माण कर सकते हैं, लौकिक एवं पारलौकिक यात्रा को सफल बना सकते हैं। यही नहीं तो आप अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति और क्षेत्र की धाराओं तक को बदल सकने का सामर्थ्य पा जाते हैं।श्वासप्रश्वास पर ध्यान लगाते हुए जीव कई बार गहरीसाधना मे पहुँचकर आत्माधिकार करते हुए अनँत ऊर्जा का धनी बन जाता है, यही दिव्यता है यही कुण्डलिनी का जाग्रत प्रवेश है।शिवस्वरोदय सँस्कृत का अत्यंत प्राचीन ग्रँथ है जिसमे 357 श्लोक इस नासिका स्वर को शरीर के पँचतत्व और पँचप्राणो से जोडकर एक अद्भुत जानकारी प्रदत्त करते है।हम अपनी दिनचर्या मे स्वरविज्ञान को जोडकर अपने जनजीवनीय स्तर को बडी सहजता से ऊँचाइयों पर ले जा सकते है।भारतीय ज्योतिष शास्त्र में भी अंक ज्योतिष,स्वप्न ज्योतिष शकुन ज्योतिष,सामुद्रिक ज्योतिष की तरह ही ये एक अंग है स्वरोदय ज्योतिष यानि स्वर विज्ञान अति प्राचीन और तत्काल प्रभाव कारक ।मानव शरीर पंचतत्व से निर्मित है । संसार के सब जीवों में से मनुष्य ही एक मात्र कर्म योनि है शेष सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य अपना जन्म सफल कर सके इसके लिए सनातन धर्म शास्त्रों में अनेक पद्धतियाँ हैं, उन्हीं में से एक है स्वर साधना । स्वर पद्धति एक पूर्ण विज्ञान है । स्वर विज्ञान की साधना से भी हमारे ऋषि मुनियों ने भूत भविष्य वर्तमान को जाना है । स्वरोदय विज्ञान सबसे सरल व प्रभावी है । इसे आसानी से समझ कर हर समय उपयोग किया जा सकता है ।
नासिका के दो छिद्र हैं दाहिना और बायां दोनों छिद्रों से निकले वाली सांस ( स्वर ) का समुचित अध्ययन व उपयोग करने से मनुष्य अपने जीवन को स्वस्थ और सुखमय बना सकता है ।
नासिक के दोनों छिद्रों में से एक समय में एक ही छिद्र से श्वास निकलता है । जब एक छिद्र से स्वास निकलता है तो दूसरा छिद्र अपने आप ही बंद हो जाता है अर्थात् एक चलता है दूसरा बंद रहता है । इसी श्वास प्रश्वास प्रक्रिया को "स्वर" कहते हैं । साँस ही स्वर है स्वर ही साँस है । साँस यानि स्वर,जो जीवन का का प्राण है । स्वर का दिन रात, चौबीस घंटे चलते रहना ही जीवन है। और स्वर का बन्द होना ही मृत्यु है ।
सूर्योदय के साथ ही स्वर का भी उदय होता है ।सामान्यतः स्वर प्रतिदिन 1 -1 घंटे के बाद दायाँ से बायाँ और बायाँ से दायाँ बदलता रहता है । इन घड़ियों के बीच स्वरोदय के साथ पाँचों तत्व ( 1)पृथ्वी 20 मिनट, (2)जल-- 16 मिनट, (3)अग्नि--12 मिनट, (4) वायु --8 मिनट, (5) आकाश -- 4 मिनट , क्रमशः उदय हो कर क्रिया करते हैं ।
प्रत्येक दायें बाएं स्वर स्वाभाविक गति से एक घंटा =900 स्वास का संचार क्रम होता है और पांच तत्व 60 घड़ी में 12 बार बदलते हैं । एक स्वस्थ व्यक्ति की श्वास प्रश्वास प्रक्रिया दिन रात अर्थात् 24 घंटे में 21600 बार होती है ।
दायें स्वर को सूर्य स्वर अथवा पिंगला नाड़ी स्वर कहते हैं बाएं स्वर को चंद्र स्वर अथवा इड़ा नाड़ी स्वर कहते हैं ।इन स्वरों का अनुभव व्यक्ति स्वयं करता है कि कौन सा स्वर चलित है, कौन सा स्वर अचलित है । यही स्वर विज्ञान ज्योतिष है ।
जब दोनों छिद्रों से एक साथ स्वर प्रवाहित होता है उसे सुषुम्ना नाड़ी स्वर कहते हैं ,और उभय स्वर भी कहते हैं ।
रीढ़ की हड्डी के मूल, मूलाधार चक्र से लेकर मष्तिष्क तक "सुषुम्ना" नाड़ी रहती है ।सुषुम्ना के दायीं तरफ सूर्य स्वर नाड़ी "पिंगला" , तथा बायीं तरफ चंद्र स्वर नाड़ी "इड़ा" रहती है । यों तो स्वर संचार क्रिया में अनेक प्राणवाही नाड़ियाँ होती हैं , जिसमें प्रमुख इड़ा ,पिंगला और सुषुम्ना ही हैं ।
मनष्य शरीर में 72 हजार नाड़ियाँ, धमनियों शिराओं, कौशिकाओं का जाल फैला हुआ होता है । जिसका नियंत्रण मष्तिष्क के पास होता है । मस्तिष्क से उत्पन्न शुभ - अशुभ विचारों का प्रभाव नाड़ी तंत्र पर पड़ता है , जिस कारण स्वरों का प्रवाह क्रम धीमा और तेज हो जाता है । इसका प्रभाव मूलाधार ,स्वाधिष्ठान,मणिपुर , अनाहत , विशुद्ध ,आज्ञा और सहस्रसार चक्रों पर भी पड़ता है । जिस कारण शारीरिक और मानसिक परिस्थितियों एवं घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है । यही स्वरोदय ज्योतिष है ।
चन्द्रमा को स्वर विज्ञान का अधिष्ठाता माना गया है ।
यदि आपने अपने वर्ष भर के शुभ अशुभ को जानना है तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक अपने स्वर संचार गति को देख कर ज्ञात होता है कि वर्ष कैसा रहेगा? इन तीन दिनों में प्रातः उठते ही अपना स्वर जांच कर यदि चंद्र स्वर (बायां) चलता हुआ मिले तो वर्ष अनुकूल शुभ कारक होगा ,और यदि सूर्य स्वर दायां स्वर चलता मिले तो प्रतिकूल अशुभ माना जाता है ।
इस प्रकार स्वर विज्ञान का आश्रय लेकर आसानी से जन सामान्य स्वयं ही अपना अपना शुभाशुभ ज्ञात कर सकते हैं ।
कौन सा कार्य कब करना उचित होगा यह भी स्वर विज्ञान से जान सकते हैं जैसे --
1-चंद्र स्वर --
सभी प्रकार के स्थिर विवाह निर्माण आदि शुभ कार्य चंद्र स्वर अर्थात् बाएं स्वर में करने सफल होते हैं । यह स्वर साक्षात् देवी स्वरुप है । इसकी प्रकृति शीतल है ।
2-सूर्य स्वर --
सभी प्रकार के चलित व कठिन कार्य सूर्य स्वर (दायां) में करने से सफलता मिलती है । यह स्वर साक्षात् शिव स्वरुप है । इसकी प्रकृति गर्म है । इस स्वर में भोजन करना , औषधि , विद्या ,संगीत अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं ।
3--"सुषुम्ना स्वर" साक्षात् काल स्वरुप है । इसमें ध्यान ,समाधि , प्रभु स्मरण भजन कीर्तन आदि सार्थक होते हैं ।
अतः मित्रों !! स्वर विज्ञान की थोड़ी सी समझ भी जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो सकती है । आज मनुष्य की दिनचर्य्या आहार विहार नियमों के अनुरूप नहीं है । देर से सोना देर से उठना फैशन बन गया है । खान पान का असंतुलन इत्यादि कारणों से स्वरों की गति में अनियमितता आ जाती है, जिससे अनेक बीमारियां प्रारम्भ हो जाती हैं । और अपना धन ,समय व्यर्थ व्यय हो जाते हैं ।
स्वर विज्ञान की पद्धति इतनी सक्षम है कि व्यक्ति स्वयं स्वर चिकित्सा द्वारा अनेक बिमारियों को दूर कर सकता है । वो भी बिना कुछ धन खर्च किये ।
जिसके लिए स्वर परिवर्तन की जानकारी होनी चाहिए
जैसे -
1-यदि सूर्य स्वर चल रहा हो और चंद्र स्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाना चाहिए ।
2-अनुलोम विलोम आदि प्राणायामों से अथवा चल रहे स्वर नासिका को कुछ देर बंद करके भी स्वर बदल जाता है ।उस समय मुंह बन्द रखना चाहिए ।
नासिका से स्वर साधन करें ।
प्रातः उठते ही चलते स्वर की करवट से उठ कर उसी तरफ की हथेली दर्शन कर मुंह पर फेर कर दोनों हथेलियों को देखकर रगड़ कर चेहरे पर घुमाकर पूरे शरीर पर घुमाकर "कर दर्शन" मन्त्र बोलकर
पृथ्वी माता को नमन कर संभव हो तो मन्त्र बोलकर चलित स्वर की और वाला पैर प्रथम आगे बढ़ाना चाहिए । वस्त्र भी चलित स्वर वाले अंग- हाथ पैर को प्रथम डाल कर धारण करना चाहिये । किसी को कुछ देने में किसी से कुछ लेने में सर्वदा चलित स्वर वाला हाथ ही प्रयुक्त करना सफलता दायक माना जाता है ।
स्वर ज्योतिष की जानकारी से आप शरीर और मन को नियंत्रित कर रोग,कलह ,हानि,कष्ट ,असफलताओं से आसानी से बच सकते हैं और वर्तमान जीवन को ही नहीं अपितु परलोक को भी सुधार सकते हैं ।
ऐसा है स्वर विज्ञान का अद्भुत चमत्कार । यह एक परिचय मात्र है ।
आशा है पाठक स्वर विज्ञान का समुचित अध्ययन कर जीवन में इसे जीवन में अपनायेंगे ।
शुभ कामनाओं के साथ
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निरँजनप्रसाद पारीक
. वेदिका
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पृथ्वी पर पाए जाने वाले लगभग सभी जीवमात्र ,यहाँ तक की वनस्पति के लिए जीवन का आधार नाक से ली जाने वाली प्राणवायु है |सभी जीव विभिन्न प्रकार से इस जीवनदायी वायु को ग्रहण करते हैं ,इसी से उनमे जीवन की समस्त क्रियाओ और ऊर्जा उत्पादन होता है ,,इसका ग्रहण करना बंद होने पर जीव मृत हो जाता है |जल बिना तो जीवन कुछ दिनों तक संभव है किन्तु श्वांस बिना मिनटों भी संभव नहीं है |वायु को जीवमात्र द्वारा नासिका द्वारा ग्रहण किया जाता है |इसके ग्रहण करने की प्रकृति का बहुत बड़ा महत्व है |किस प्रकार किस ओर से वायु ग्रहण हो रही है इसका जीव पर गंभीर प्रभाव पड़ता है |विशिष्ट प्रकार से ग्रहण ही प्राणायाम का आधार है ,कुंडलिनी की ऊर्जा का स्रोत है |योग में इसे मूर्धन्य स्थान प्राप्त है |इसकी इन सब विशेषताओं को जानना ही स्वर विज्ञान है | स्वर विज्ञान को जानने वाला कभी भी विपरीत परिस्थितियों में नहीं फँसता और फँस भी जाए तो आसानी से विपरीत परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाकर बाहर निकल जाता है। स्वर विज्ञान एक बहुत ही आसान विद्या है। इस विद्या को प्रसिद्ध स्वर साधक योगीराज यशपालजी ने 'विज्ञान' कहकर सुशोभित किया है। इनके अनुसार स्वरोदय, नाक के छिद्र से ग्रहण किया जाने वाला श्वास है, जो वायु के रूप में होता है। श्वास ही जीव का प्राण है और इसी श्वास को स्वर कहा जाता है।
स्वर के चलने की क्रिया को उदय होना मानकर स्वरोदय कहा गया है तथा विज्ञान, जिसमें कुछ विधियाँ बताई गई हों और विषय के रहस्य को समझने का प्रयास हो, उसे विज्ञान कहा जाता है। स्वरोदय विज्ञान एक आसान प्रणाली है, जिसे प्रत्येक श्वास लेने वाला जीव प्रयोग में ला सकता है। स्वरोदय अपने आप में पूर्ण विज्ञान है। इसके ज्ञान मात्र से ही व्यक्ति अनेक लाभों से लाभान्वित होने लगता है। इसका लाभ प्राप्त करने के लिए आपको कोई कठिन गणित, साधना, यंत्र-जाप, उपवास या कठिन तपस्या की आवश्यकता नहीं होती है। आपको केवल श्वास की गति एवं दिशा की स्थिति ज्ञात करने का अभ्यास मात्र करना है। यह विद्या इतनी सरल है कि अगर थोड़ी लगन एवं आस्था से इसका अध्ययन या अभ्यास किया जाए तो जीवनपर्यन्त इसके असंख्य लाभों से अभिभूत हुआ जा सकता है। सर्वप्रथम हाथों द्वारा नाक के छिद्रों से बाहर निकलती हुई श्वास को महसूस करने का प्रयत्न कीजिए। देखिए कि कौन से छिद्र से श्वास बाहर निकल रही है। स्वरोदय विज्ञान के अनुसार अगर श्वास दाहिने छिद्र से बाहर निकल रही है तो यह सूर्य स्वर होगा। इसके विपरीत यदि श्वास बाएँ छिद्र से निकल रही है तो यह चंद्र स्वर होगा एवं यदि जब दोनों छिद्रों से निःश्वास निकलता महसूस करें तो यह सुषुम्ना स्वर कहलाएगा। श्वास के बाहर निकलने की उपरोक्त तीनों क्रियाएँ ही स्वरोदय विज्ञान का आधार हैं। सूर्य स्वर पुरुष प्रधान है। इसका रंग काला है। यह शिव स्वरूप है, इसके विपरीत चंद्र स्वर स्त्री प्रधान है एवं इसका रंग गोरा है, यह शक्ति अर्थात् पार्वती का रूप है। इड़ा नाड़ी शरीर के बाईं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दाहिनी तरफ अर्थात् इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर स्थित रहता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः दोनों ओर से श्वास निकले वह सुषम्ना स्वर कहलाएगा।
स्वर को पहचानने की सरल विधियाँ
(1) शांत भाव से मन एकाग्र करके बैठ जाएँ। अपने दाएँ हाथ को नाक छिद्रों के पास ले जाएँ। तर्जनी अँगुली छिद्रों के नीचे रखकर श्वास बाहर फेंकिए। ऐसा करने पर आपको किसी एक छिद्र से श्वास का अधिक स्पर्श होगा। जिस तरफ के छिद्र से श्वास निकले, बस वही स्वर चल रहा है।
(2) एक छिद्र से अधिक एवं दूसरे छिद्र से कम वेग का श्वास निकलता प्रतीत हो तो यह सुषुम्ना के साथ मुख्य स्वर कहलाएगा।
(3) एक अन्य विधि के अनुसार आईने को नासाछिद्रों के नीचे रखें। जिस तरफ के छिद्र के नीचे काँच पर वाष्प के कण दिखाई दें, वही स्वर चालू समझें।
स्वर विज्ञान अपने आप में दुनिया का महानतम ज्योतिष विज्ञान है जिसके संकेत कभी गलत नहीं जाते। शरीर की मानसिक और शारीरिक क्रियाओं से लेकर दैवीय सम्पर्कों और परिवेशीय घटनाओं तक को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाला स्वर विज्ञान दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है। स्वर विज्ञान का सहारा लेकर आप जीवन को नई दिशा दृष्टि दे सकते है |.दिव्य जीवन का निर्माण कर सकते हैं, लौकिक एवं पारलौकिक यात्रा को सफल बना सकते हैं। यही नहीं तो आप अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति और क्षेत्र की धाराओं तक को बदल सकने का सामर्थ्य पा जाते हैं।श्वासप्रश्वास पर ध्यान लगाते हुए जीव कई बार गहरीसाधना मे पहुँचकर आत्माधिकार करते हुए अनँत ऊर्जा का धनी बन जाता है, यही दिव्यता है यही कुण्डलिनी का जाग्रत प्रवेश है।शिवस्वरोदय सँस्कृत का अत्यंत प्राचीन ग्रँथ है जिसमे 357 श्लोक इस नासिका स्वर को शरीर के पँचतत्व और पँचप्राणो से जोडकर एक अद्भुत जानकारी प्रदत्त करते है।हम अपनी दिनचर्या मे स्वरविज्ञान को जोडकर अपने जनजीवनीय स्तर को बडी सहजता से ऊँचाइयों पर ले जा सकते है।भारतीय ज्योतिष शास्त्र में भी अंक ज्योतिष,स्वप्न ज्योतिष शकुन ज्योतिष,सामुद्रिक ज्योतिष की तरह ही ये एक अंग है स्वरोदय ज्योतिष यानि स्वर विज्ञान अति प्राचीन और तत्काल प्रभाव कारक ।मानव शरीर पंचतत्व से निर्मित है । संसार के सब जीवों में से मनुष्य ही एक मात्र कर्म योनि है शेष सब भोग योनियाँ हैं। मनुष्य अपना जन्म सफल कर सके इसके लिए सनातन धर्म शास्त्रों में अनेक पद्धतियाँ हैं, उन्हीं में से एक है स्वर साधना । स्वर पद्धति एक पूर्ण विज्ञान है । स्वर विज्ञान की साधना से भी हमारे ऋषि मुनियों ने भूत भविष्य वर्तमान को जाना है । स्वरोदय विज्ञान सबसे सरल व प्रभावी है । इसे आसानी से समझ कर हर समय उपयोग किया जा सकता है ।
नासिका के दो छिद्र हैं दाहिना और बायां दोनों छिद्रों से निकले वाली सांस ( स्वर ) का समुचित अध्ययन व उपयोग करने से मनुष्य अपने जीवन को स्वस्थ और सुखमय बना सकता है ।
नासिक के दोनों छिद्रों में से एक समय में एक ही छिद्र से श्वास निकलता है । जब एक छिद्र से स्वास निकलता है तो दूसरा छिद्र अपने आप ही बंद हो जाता है अर्थात् एक चलता है दूसरा बंद रहता है । इसी श्वास प्रश्वास प्रक्रिया को "स्वर" कहते हैं । साँस ही स्वर है स्वर ही साँस है । साँस यानि स्वर,जो जीवन का का प्राण है । स्वर का दिन रात, चौबीस घंटे चलते रहना ही जीवन है। और स्वर का बन्द होना ही मृत्यु है ।
सूर्योदय के साथ ही स्वर का भी उदय होता है ।सामान्यतः स्वर प्रतिदिन 1 -1 घंटे के बाद दायाँ से बायाँ और बायाँ से दायाँ बदलता रहता है । इन घड़ियों के बीच स्वरोदय के साथ पाँचों तत्व ( 1)पृथ्वी 20 मिनट, (2)जल-- 16 मिनट, (3)अग्नि--12 मिनट, (4) वायु --8 मिनट, (5) आकाश -- 4 मिनट , क्रमशः उदय हो कर क्रिया करते हैं ।
प्रत्येक दायें बाएं स्वर स्वाभाविक गति से एक घंटा =900 स्वास का संचार क्रम होता है और पांच तत्व 60 घड़ी में 12 बार बदलते हैं । एक स्वस्थ व्यक्ति की श्वास प्रश्वास प्रक्रिया दिन रात अर्थात् 24 घंटे में 21600 बार होती है ।
दायें स्वर को सूर्य स्वर अथवा पिंगला नाड़ी स्वर कहते हैं बाएं स्वर को चंद्र स्वर अथवा इड़ा नाड़ी स्वर कहते हैं ।इन स्वरों का अनुभव व्यक्ति स्वयं करता है कि कौन सा स्वर चलित है, कौन सा स्वर अचलित है । यही स्वर विज्ञान ज्योतिष है ।
जब दोनों छिद्रों से एक साथ स्वर प्रवाहित होता है उसे सुषुम्ना नाड़ी स्वर कहते हैं ,और उभय स्वर भी कहते हैं ।
रीढ़ की हड्डी के मूल, मूलाधार चक्र से लेकर मष्तिष्क तक "सुषुम्ना" नाड़ी रहती है ।सुषुम्ना के दायीं तरफ सूर्य स्वर नाड़ी "पिंगला" , तथा बायीं तरफ चंद्र स्वर नाड़ी "इड़ा" रहती है । यों तो स्वर संचार क्रिया में अनेक प्राणवाही नाड़ियाँ होती हैं , जिसमें प्रमुख इड़ा ,पिंगला और सुषुम्ना ही हैं ।
मनष्य शरीर में 72 हजार नाड़ियाँ, धमनियों शिराओं, कौशिकाओं का जाल फैला हुआ होता है । जिसका नियंत्रण मष्तिष्क के पास होता है । मस्तिष्क से उत्पन्न शुभ - अशुभ विचारों का प्रभाव नाड़ी तंत्र पर पड़ता है , जिस कारण स्वरों का प्रवाह क्रम धीमा और तेज हो जाता है । इसका प्रभाव मूलाधार ,स्वाधिष्ठान,मणिपुर , अनाहत , विशुद्ध ,आज्ञा और सहस्रसार चक्रों पर भी पड़ता है । जिस कारण शारीरिक और मानसिक परिस्थितियों एवं घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है । यही स्वरोदय ज्योतिष है ।
चन्द्रमा को स्वर विज्ञान का अधिष्ठाता माना गया है ।
यदि आपने अपने वर्ष भर के शुभ अशुभ को जानना है तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक अपने स्वर संचार गति को देख कर ज्ञात होता है कि वर्ष कैसा रहेगा? इन तीन दिनों में प्रातः उठते ही अपना स्वर जांच कर यदि चंद्र स्वर (बायां) चलता हुआ मिले तो वर्ष अनुकूल शुभ कारक होगा ,और यदि सूर्य स्वर दायां स्वर चलता मिले तो प्रतिकूल अशुभ माना जाता है ।
इस प्रकार स्वर विज्ञान का आश्रय लेकर आसानी से जन सामान्य स्वयं ही अपना अपना शुभाशुभ ज्ञात कर सकते हैं ।
कौन सा कार्य कब करना उचित होगा यह भी स्वर विज्ञान से जान सकते हैं जैसे --
1-चंद्र स्वर --
सभी प्रकार के स्थिर विवाह निर्माण आदि शुभ कार्य चंद्र स्वर अर्थात् बाएं स्वर में करने सफल होते हैं । यह स्वर साक्षात् देवी स्वरुप है । इसकी प्रकृति शीतल है ।
2-सूर्य स्वर --
सभी प्रकार के चलित व कठिन कार्य सूर्य स्वर (दायां) में करने से सफलता मिलती है । यह स्वर साक्षात् शिव स्वरुप है । इसकी प्रकृति गर्म है । इस स्वर में भोजन करना , औषधि , विद्या ,संगीत अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं ।
3--"सुषुम्ना स्वर" साक्षात् काल स्वरुप है । इसमें ध्यान ,समाधि , प्रभु स्मरण भजन कीर्तन आदि सार्थक होते हैं ।
अतः मित्रों !! स्वर विज्ञान की थोड़ी सी समझ भी जीवन के लिए वरदान सिद्ध हो सकती है । आज मनुष्य की दिनचर्य्या आहार विहार नियमों के अनुरूप नहीं है । देर से सोना देर से उठना फैशन बन गया है । खान पान का असंतुलन इत्यादि कारणों से स्वरों की गति में अनियमितता आ जाती है, जिससे अनेक बीमारियां प्रारम्भ हो जाती हैं । और अपना धन ,समय व्यर्थ व्यय हो जाते हैं ।
स्वर विज्ञान की पद्धति इतनी सक्षम है कि व्यक्ति स्वयं स्वर चिकित्सा द्वारा अनेक बिमारियों को दूर कर सकता है । वो भी बिना कुछ धन खर्च किये ।
जिसके लिए स्वर परिवर्तन की जानकारी होनी चाहिए
जैसे -
1-यदि सूर्य स्वर चल रहा हो और चंद्र स्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाना चाहिए ।
2-अनुलोम विलोम आदि प्राणायामों से अथवा चल रहे स्वर नासिका को कुछ देर बंद करके भी स्वर बदल जाता है ।उस समय मुंह बन्द रखना चाहिए ।
नासिका से स्वर साधन करें ।
प्रातः उठते ही चलते स्वर की करवट से उठ कर उसी तरफ की हथेली दर्शन कर मुंह पर फेर कर दोनों हथेलियों को देखकर रगड़ कर चेहरे पर घुमाकर पूरे शरीर पर घुमाकर "कर दर्शन" मन्त्र बोलकर
पृथ्वी माता को नमन कर संभव हो तो मन्त्र बोलकर चलित स्वर की और वाला पैर प्रथम आगे बढ़ाना चाहिए । वस्त्र भी चलित स्वर वाले अंग- हाथ पैर को प्रथम डाल कर धारण करना चाहिये । किसी को कुछ देने में किसी से कुछ लेने में सर्वदा चलित स्वर वाला हाथ ही प्रयुक्त करना सफलता दायक माना जाता है ।
स्वर ज्योतिष की जानकारी से आप शरीर और मन को नियंत्रित कर रोग,कलह ,हानि,कष्ट ,असफलताओं से आसानी से बच सकते हैं और वर्तमान जीवन को ही नहीं अपितु परलोक को भी सुधार सकते हैं ।
ऐसा है स्वर विज्ञान का अद्भुत चमत्कार । यह एक परिचय मात्र है ।
आशा है पाठक स्वर विज्ञान का समुचित अध्ययन कर जीवन में इसे जीवन में अपनायेंगे ।
शुभ कामनाओं के साथ
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निरँजनप्रसाद पारीक
. वेदिका
बहुत ही शानदार, प्रकृति की और जिस तरह सरल शब्दों में समझाया, आनंद आ गया।
ReplyDeleteVery good spiritual knowledge about the same.
ReplyDeleteBhut hi sahandar
ReplyDeleteकृपया विस्तार से अधिक जानकारी होती तो बहुत अच्छा होता जो भी प्राप्त जानकारी है वो अच्छी है
ReplyDeleteye swar nadi sastra nahi he.jo rugvad ke samay me likha gya tha.
ReplyDeleteDenik Jeevan me upyog kese Karen
ReplyDeleteGreat information
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