भारत का प्राचीन खगोल विज्ञान



*खगोल विज्ञान*

यह विज्ञान भारत में ही विकसित हुआ। प्रसिद्ध जर्मन खगोलविज्ञानी कॉपरनिकस से लगभग 1000 वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने पृथ्वी की गोल आकृति और इसके अपनी धुरी पर घूमने की पुष्टि कर दी थी। इसी तरह आइजक न्यूटन से 1000 वर्ष पूर्व ही ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त की पुष्टि कर दी थी। यह एक अलग बात है कि किन्हीं कारणों से इनका श्रेय पाश्चात्य वैज्ञानिकों को मिला।

*भारतीय खगोल विज्ञान का उद्भव वेदों से माना जाता है।* वैदिककालीन भारतीय धर्मप्राण व्यक्ति थे। वे अपने यज्ञ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठान ग्रहों की स्थिति के अनुसार शुभ लग्न देखकर किया करते थे। शुभ लग्न जानने के लिए उन्होंने खगोल विज्ञान का विकास किया था। वैदिक आर्य सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणायन गति से परिचित थे। वैदिककालीन खगोल विज्ञान का एक मात्र ग्रंथ ‘वेदांग ज्योतिष’ है। इसकी रचना ‘लगध’ नामक ऋषि ने ईसा से लगभग 100 वर्ष पूर्व की थी। महाभारत में भी खगोल विज्ञान से संबंधित जानकारी मिलती है। महाभारत में चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण की चर्चा है। इस काल के लोगों को ज्ञात था कि ग्रहण केवल अमावस्या और पूर्णिमा को ही लग सकते हैं। इस काल के लोगों का ग्रहों के विषय में भी अच्छा ज्ञान था। ‘वेदांग ज्योतिष’ के बाद लगभग एक हजार वर्षों तक खगोल विज्ञान का कोई ग्रंथ नहीं मिलता।
पाँचवीं शताब्दी में आर्यभट्ट ने सर्वप्रथम लोगों को बताया कि पृथ्वी गोल है और यह अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है। उन्होंने पृथ्वी के आकार, गति और परिधि का अनुमान भी लगाया था। आर्यभट्ट ने सूर्य और चंद्र ग्रहण के सही कारणों का पता लगाया। उनके अनुसार चंद्रमा और पृथ्वी की परछाई पड़ने से ग्रहण लगता है। चंद्रमा में अपना प्रकाश नहीं है, वह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित है। इसी प्रकार आर्यभट्ट ने राहु-केतु द्वारा सूर्य और चंद्र को ग्रस लेने के सिद्धान्त का खण्डन किया और ग्रहण का सही वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रतिपादित किया। आर्यभट्ट ने ‘आर्यभटीय’ तथा ‘आर्य सिद्धान्त’ नामक ग्रन्थों की रचना की थी।
आर्यभट्ट के बाद छठी शताब्दी में वराहमिहिर नाम के खगोल वैज्ञानिक हुए। विज्ञान के इतिहास में वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा कि कोई ऐसी शक्ति है, जो वस्तुओं को धरातल से बाँधे रखती है। आज इसी शक्ति को गुरुत्वाकर्षण कहते हैं। वराहमिहिर का कहना था कि पृथ्वी गोल है, जिसके धरातल पर पहाड़, नदियाँ, पेड़-पौधो, नगर आदि फैले हुए हैं। ‘पंचसिद्धान्तिका’ और ‘सूर्यसिद्धान्त’ उनकी खगोल विज्ञान सम्बन्धी पुस्तकें हैं। इनके अतिरिक्त वराहमिहिर ने ‘वृहत्संहिता’ और ‘वृहज्जातक’ नाम की पुस्तकें भी लिखी हैं।
इसके बाद भारतीय खगोल विज्ञान में ब्रह्मगुप्त का भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनका कार्यकाल सातवीं शताब्दी से माना जाता है। वे खगोल विज्ञान संबंध गणनाओं में संभवतः बीजगणित का प्रयोग करने वाले भारत के सबसे पहले महान गणितज्ञ थे। ‘ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त’ इनका प्रमुख ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त जीवन के अंतिम वर्षों में ब्रह्मगुप्त ने ‘खण्ड खाद्यक’ नामक ग्रन्थ भी लिखा था। इन्होंने विभिन्न ग्रहों की गति और स्थिति, उनके उदय और अस्त, युति तथा सूर्य ग्रहण की गणना करने की विधियों का वर्णन किया है। ब्रह्मगुप्त का ग्रहों का ज्ञान प्रत्यक्ष वेध (अवलोकन) पर आधारित था। इनका मानना था कि जब कभी गणना और वेध में अन्तर पड़ने लगे तो वेध के द्वारा गणना शुद्ध कर लेनी चाहिए। ये पृथ्वी को गोल मानते थे तथा पुराणों में पृथ्वी को चपटी मानने के विचार की इन्होंने कड़ी आलोचना की है। ब्रह्मगुप्त आर्यभट्ट के अनेक सिद्धान्तों के साथ पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के सिद्धान्त के भी आलोचक थे। ब्रह्मगुप्त पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के सिद्धान्त से सहमत थे। उनके अनुसार ‘वस्तुएँ पृथ्वी की ओर गिरती हैं क्योंकि पृथ्वी की प्रकृति है कि वह उन्हें अपनी ओर आकर्षित करे।’
ब्रह्मगुप्त के बाद खगोल विज्ञान में भास्कराचार्य का विशिष्ट योगदान है। इनका समय बारहवीं शताब्दी था। वे गणित के प्रकाण्ड पण्डित थे। इन्होंने ‘सिद्धान्तशिरोमणि’ और ‘करण कुतुहल’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की थी। खगोलविद् के रूप में भास्कराचार्य अपनी ‘तात्कालिक गति’ की अवधरणा के लिए प्रसिद्ध हैं। इससे खगोल वैज्ञानिकों को ग्रहों की गति का सही ज्ञान प्राप्त करने में मदद मिलती है।
भास्कर ने एक तो गोले की सतह और उसके घनफल को निकालने के जर्मन ज्योतिर्विद केपलर के नियम का पूर्वाभ्यास कर लिया था। दूसरे उन्होंने सत्रहवीं शताब्दी में जन्मे आइजैक न्यूटन से लगभग 500 वर्ष पूर्व गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था।
                                🌹🌷वेदिका🌹🌷

Comments

  1. फार चांगली माहिती आहे. सखोल माहिती आणि इतर ग्रंथाचे नावाची यादी प्रसिद्ध केल्यास रेफरन्स ला चांगले राहील

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    1. पवन जैन योग शिक्षक

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