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Showing posts from 2019

भृगु ऋषि

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भृगु कुल के भार्गवंशी ज्योतिष के आदिसृष्टा ऋषि भृगु भृगु से भार्गव, च्यवन, और्व, आप्नुवान, जमदग्नि, दधीचि आदि के नाम से गोत्र चले। यदि हम ब्रह्मा के मानस पुत्र भृगु की बात करें तो वे आज से लगभग 9,400 वर्ष पूर्व हुए थे। इनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं।  महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान मिला है। पारसी धर्म के लोगों को अत्रि, भृगु और अंगिरा के कुल का माना जाता है। पारसी धर्म के संस्थापक जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना गया है। पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है, जो ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक पुरातन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। (ब्रह्मा और सरस्वती से उत्पन्न पुत्र ऋषि सारस्वत थे। एक मान्यता अनुसार पुरूरवा और सरस्वती से उत्पन्न पुत्र सरस्वान थे। समस्त सारस्वत जाती का मूल ऋषि सारस्वत है। कुछ लोगों अनुसार दधीचि के पुत्र सारस्वत ऋषि थे। दधीचि के पिता ऋषि भृगु थे और भृगु के पिता ब्रह्मा। एक अन्य मान्यता अनुसार इंद्र ने '

विष्णुपुराण मे विश्व मानचित्र

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सम्पूर्ण विश्व के भूभाग को हजारों लाखों वर्ष पूर्व सुस्पष्ट कर देने वाली पुस्तक==विष्णुपुराण जी हाँ! ठीक शीर्षक पढ़ा आपने, पृथ्वी का संपूर्ण लिखित वर्णन सबसे पहले विष्णु पुराण में देखने को मिलता है... विष्णु पुराण के रचियता है... महान ऋषि पाराशर.. ऋषि पाराशर महर्षि वसिष्ठ के पौत्र, गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के द्रष्टा एवं ग्रंथकार थे... राक्षस द्वारा मारे गए वसिष्ठ के पुत्र शक्ति से इनका जन्म हुआ। बड़े होने पर माता अदृश्यंती से पिता की मृत्यु की बात ज्ञात होने पर राक्षसों के नाश के निमित्त इन्होंने राक्षस सत्र नामक यज्ञ शुरू किया जिसमें अनेक निरपराध राक्षस मारे जाने लगे। यह देखकर पुलस्त्य आदि ऋषियों ने उपदेश देकर इनकी राक्षसों के विनाश से निवृत्त किया और पुराण प्रवक्ता होने का वर दिया। इसके पश्चात् इन्होने विष्णु पुराण की रचना की... यह पुराण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा प्राचीन है। इस पुराण में आकाश आदि भूतों का परिमाण, समुद्र, सूर्य आदि का परिमाण, पर्वत, देवतादि की उत्पत्ति, मन्वन्तर, कल्प-विभाग, सम्पूर्ण धर्म एवं देवर्षि तथा राजर्षियों के चरित्र का विशद वर्णन है। अष्टादश महापु

सँजीवनी बूटी

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*रहस्यमयी संजीवनी बूटी का सच* रामायण के अनुसार 'मूर्छित' लक्ष्मण को जीवित करने के लिए हिमालय की कंदराओं से हनुमान संजीवनी बूटी लेकर आए थे और वैद्य सुषेन द्वारा लक्ष्मण को जीवनदान मिला। सँजीवनी==ऐसी वनस्पत्यौषधि जो मृतप्राय को पुनर्जीवित कर देती है।आश्चर्यजनक अद्भुत अकल्पनीय पर सत्य है ये। लक्ष्मण के मूर्छित होने पर विभीषण के कहने पर लंका से वैद्य सुषेण को बुलाया गया. सुषेण ने आते ही कहा कि लक्ष्मण को अगर कोई चीज बचा सकती है ते वो हैं चार *बूटियां-मृतसंजीवनी, विशालयाकरणी, सुवर्णकरणी और संधानी बूटियां. ये सभी बूटियां सिर्फ हिमालय पर मिल सकती थीं*. हनुमान आकाशमार्ग से चलकर हिमालय पर्वत पहुंचे. सुषेण ने संजीवनी को चमकीली आभा और विचित्र गंध वाली बूटी बताया था. पहाड़ पर ऐसी कई बूटियां थीं. पहचान न पाने के कारण हनुमानजी पर्वत का एक हिस्सा ही तोड़कर उठा ले गए थे. पहाड़ लेकर युद्धक्षेत्र पहुंचे हनुमान ने पहाड़ वहीं रख दिया. वैद्य ने संजीवनी बूटी को पहचाना और लक्ष्मण का उपचार किया. लक्ष्मण ठीक हो गए और राम ने रावण को युद्ध में पराजित कर दिया. हनुमान का लाया वो पहाड़ वहीं रखा

माया सभ्यता का रहस्य

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#रहस्योद्घाटन    #पुष्पक_विमान  #प्राचीन_आश्चर्य एक चीज मैं बारंबार दोहराता रहा हूँ और सभी परिचित भी है कि आप ग्लोब लीजिये और भारत में पेंसिल घुसाइये फिर देखिये कि पेंसिल ग्लोब के दूसरे साइड कहाँ निकलती है ? पेंसिल मेक्सिको, पेरू में निकलेगी। ये तो खैर ग्लोब के अंदर से हो गई। अगर ग्लोब के बाहर से मार्कर ले के लाइन खीचेंगे तो ?? तो वो स्ट्रेट लाइन बनेगी। फिर कमाल देखिये कि इस स्ट्रेट लाइन में कौन-कौन सी जगहें आती हैं?? लगे तो ग्लोब के चारों ओर घुमा दीजिये,फिर अवलोकन कीजिये। प्राचीन समय के सबसे रहस्यमय जगहें कौन-कौन सी है जो अब तक मॉडर्न साइंस के लिए चुनौती बनी हुई है और लगातार नए नए रिसर्च हो रहे हैं?? चलिये कुछ जगह हम यहां मेंशन कर देते हैं.. भारत का मोहनजोदड़ो, मिस्र के पिरामिड,नाज्का (Nazca)पेरू के ड्रॉइंग्स और माचूपिकउ के पिरामिड,ईस्टर आइसलैंड और कम्बोडिया का अंगकोरवाट मन्दिर। ये मुख्य जगहें हैं ध्यानाकर्षण के लिए। लेकिन इन सब के बीच में भी कुछ जगहें और जोड़ लेते हैं.. Paratuari, Tassili N'Ajjer,Siwa,Petra,Khajuraho,Pyay,Sukhothai,Preah Vihear इन सब को आप गूगल में पढ़

प्राचीन अँकगणित

*अंकगणित* हड़प्पाकालीन संस्कृति के लोग अवश्य ही अंकों और संख्याओं से परिचित रहे होंगे। इस युग की लिपि के अब तक न पढ़े जा सकने के कारण निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन भवन, सड़कों, नालियों, स्नानागारों आदि के निर्माण में अंकों और संख्याओं का निश्चित रूप से उपयोग हुआ होगा। माप-तौल और व्यापार क्या बिना अंकों और संख्याओं के संभव था? हड़प्पाकालीन संस्कृति की लिपि के पढ़े जाने के बाद निश्चित ही अनेक नए तथ्य उद्घाटित होंगे। इसके बाद वैदिककालीन भारतीय अंकों और संख्याओं का उपयोग करते थे। वैदिक युग के एक ऋषि मेघातिथि 1012 तक की बड़ी संख्याओं से परिचित थे। वे अपनी गणनाओं में दस और इसके गुणकों का उपयोग करते थे। ‘यजुर्वेद संहिता’ अध्याय 17, मंत्र 2 में 10,00,00,00,00,000 (एक पर बारह शून्य, दस खरब) तक की संख्या का उल्लेख है। ईसा से 100 वर्ष पूर्व का जैन ग्रन्थ ‘अनुयोग द्वार सूत्र’ है। इसमें असंख्य तक गणना की गई है, जिसका परिमाण 10140 के बराबर है। उस समय यूनान में बड़ी-से-बड़ी संख्या का नाम 'मिरियड' था, जो 10,000 (दस सहस्र) थे और रोम के लोगों की बड़ी-से-बड़ी संख्या का नाम मिल्

भारत का प्राचीन खगोल विज्ञान

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*खगोल विज्ञान* यह विज्ञान भारत में ही विकसित हुआ। प्रसिद्ध जर्मन खगोलविज्ञानी कॉपरनिकस से लगभग 1000 वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने पृथ्वी की गोल आकृति और इसके अपनी धुरी पर घूमने की पुष्टि कर दी थी। इसी तरह आइजक न्यूटन से 1000 वर्ष पूर्व ही ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त की पुष्टि कर दी थी। यह एक अलग बात है कि किन्हीं कारणों से इनका श्रेय पाश्चात्य वैज्ञानिकों को मिला। *भारतीय खगोल विज्ञान का उद्भव वेदों से माना जाता है।* वैदिककालीन भारतीय धर्मप्राण व्यक्ति थे। वे अपने यज्ञ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठान ग्रहों की स्थिति के अनुसार शुभ लग्न देखकर किया करते थे। शुभ लग्न जानने के लिए उन्होंने खगोल विज्ञान का विकास किया था। वैदिक आर्य सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणायन गति से परिचित थे। वैदिककालीन खगोल विज्ञान का एक मात्र ग्रंथ ‘वेदांग ज्योतिष’ है। इसकी रचना ‘लगध’ नामक ऋषि ने ईसा से लगभग 100 वर्ष पूर्व की थी। महाभारत में भी खगोल विज्ञान से संबंधित जानकारी मिलती है। महाभारत में चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण की चर्चा है। इस काल के लोगों को ज्ञात था कि ग्रहण केवल अमावस्या और पूर्णिमा को ही

प्राचीन विद्युत शास्त्र

महर्षि अगस्त्य का विद्युत्-शास्त्र महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ॠषि थे। इन्हें सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। ये वशिष्ठ मुनि (राजा दशरथ के राजकुल गुरु)  के बड़े भाई थे। वेदों से लेकर पुराणों में इनकी महानता की अनेक बार चर्चा की गई है | इन्होने अगस्त्य संहितानामक ग्रन्थ की रचना की जिसमे इन्होने हर प्रकार का ज्ञान समाहित किया | इन्हें त्रेता युग में भगवान  श्री राम से मिलने का सोभाग्य प्राप्त हुआ उस समय श्री राम वनवास काल में थे | इसका विस्तृत वर्णन श्री वाल्मीकि कृत रामायण में मिलता है | इनका आश्रम आज भी महाराष्ट्र के नासिक की एक पहाड़ी पर स्थित है | राव साहब कृष्णाजी वझे ने १८९१ में पूना से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। भारत में विज्ञान संबंधी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी के पास अगस्त्य संहिता के कुछ पन्ने मिले।  इस संहिता के पन्नों में उल्लिखित वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल से मिलता-जुलता है। अत: उन्होंने नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को

शिवतत्त्व

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ॐ कार सहित शिव लिंग संहिता ॐ कार का अर्थ एवं महत्त्व ॐ = अ+उ+म+(ँ) अर्ध तन्मात्रा। ॐ का अ कार स्थूल जगत का आधार है (रजोगुण सहित स्रष्टि की रचना) । उ कार सूक्ष्म जगत का आधार है (सत्व गुण सहित सूक्ष्म रूप से स्रष्टि की पालन कार्य , जीव अंश प्रधान करता है )। म कार कारण जगत का आधार है (तमो गुण सहित संपूर्ण द्रष्य स्रष्टि को लय करता है । अर्ध तन्मात्रा (ँ) जो इन तीनों जगत से प्रभावित नहीं होता बल्कि तीनों जगत जिससे सत्ता- स्फूर्ति लेते हैं यही त्रिगुणात्मक शक्ति है (०) बिंदु (शुन्य ) अर्थात अवर्णनीय ,अपरिमित , अविरल ( दुर्लभ ),अखंड , शाश्वत चित्त( चित्त -ज्ञान), ,शक्ति विशिष्ट शिव का अव्यक्त रूप ,अनिर्वचनीय ( वाचा जिसे ना पकड़ पाए) , ,अगोचर , सिद्धांत शिखा मणि मे इस तत्व के लिए वर्णन आता है..”अपरप्रत्यम ( जो दूसरों को न दिखाया जा सके )शान्तम( शांत रूप ) प्रपंचैर अप्रपंचितम( रूप रस आदि प्रपंचैर गुणों की तरह जिसका वर्णन ना किया जा सके…वह इनसे नहीं जुड़ा है … ) निर्विकलाप्म( कल्पना से परे ..जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते ) अनानार्थम( अनेकानेक अर्थों से भी हम जिसका अर्थ ना कर सकें ) एतत

पेट्रोलियम

पेट्रोलियम का मतलब है पथ्थर का तेल, ये ग्रीक शब्द है । petra= rocks + elaion= oil. पथ्थर का तेल कुदरती रूप में मिलता है जीस का रंग काला या पिला हो सकता है । ये असली कुदरती पदार्थों से नही बनता है पर जिवाश्म से बनता है, वनस्पति या प्राणी के मृत शरीर से बनता है। इसलिए उसे अश्मिजन्य तेल भी कहा जाता है । ये हाइड्रोकार्बन के विविध रूप है । जुरासिस युग में धरती पर की पूरी जीवसृष्टि धरती में दब गयी थी । धरती में दबा हुआ जीव का शरीर प्रचंड दबाव और गरमी के कारण पथ्थर ( जिवाश्म) बन गया है । उन्हीं पथ्थरों तक पहुंच कर, पथ्थरों में प्रोसेस कर के आज का मानव तेल और गॅस खींच कर लाता है ।   इतिहास इतिहास बहुत लंबा और ४००० साल पूराना है । ग्रीस में धनवानो के मेहलों में रोशनी के लिए मशालें जलाते थे । इसा पूर्व की छठी सदी में पारसी ( ईरानी ) सैनिक दुश्मन के किले जीतने के लिए क्रुडओइल के हथियारों का उपयोग करते थे । इसा पूर्व 325 में सिकंदर अपने दुश्मनो पर हमला करने के लिए जलती मशाल फैंकता था । पूरा इतिहास इस लिन्क पर http://www.geohelp.net/world.html 1807 तक आम आदमी के लिए ओइल के उपरोग की शुर

पुनर्जन्म एक विज्ञान

पुनर्जन्म का सिद्धांत :- यह विचारणीय बात है कि निसर्गतः अज्ञानी कृमिकीटों (कीड़े मकौड़ों) को भी अपने मृत्यु का पता कैसे लगा, और उस स्थान से दूसरे स्थान तक भाग जाने का उत्साह उसे किसने सिखाया ? इसका विचार करते करते विचारी मनुष्य पुनर्जन्म पर विशवास करने लगता है, और समझता है, कि प्रत्येक प्राणिमात्र के अन्दर जो यह मृत्यु का भय लगा हुआ है , वह मृत्यु के अनुभव के कारण ही है । पहले कई बार इसने स्वयं मृत्यु का अनुभव किया और देखा कि मृत्यु के समय क्या आपत्ति होती है । मृत्यु के अनिष्ट अनुभव का गुप्तज्ञान उसकी सूक्ष्मबुद्धि में छिपा हुआ है और यही उसे प्रेरणा करता है कि तुम मृत्यु से बचने का यत्न करो । अर्थात् पुनर्जन्म सत्य है , इसीलिए प्रत्येक प्राणी मृत्यु से भयभीत होता है ; यदि पूर्व मृत्यु का अनुभव न होता तो इस देह में आने के पश्चात मृत्यु कि कलप्ना भी किसी प्राणी को न होती और जिसकी कलप्ना भी नहीं होती उसके विषय में भय का होना सर्वथा असम्भव है । जीव अल्पज्ञ है त्रिकालदर्शी नहीं इसीलिए स्मरण नहीं रहता और जिस मन से ज्ञान करता है , वह भी एक समय में दो ज्ञान नहीं रख सकता । भला पूर्वजन्म

हमारे प्राचीन ऋषि

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* हिंदुस्तान के गौरवशाली ऋषि-मुनियों का वैज्ञानिक इतिहास ! ---------------------------------------------------- जिनमे से कुछ विवरण यहाँ हम दे रहें है .. --------------------------------------------- हिंदु वेदोंको मान्यता देते हैं और वेदोंमें विज्ञान बताया गया है । केवल सौ वर्षोंमें पृथ्वीको नष्टप्राय बनानेके मार्गपर लानेवाले आधुनिक विज्ञानकी अपेक्षा, अत्यंत प्रगतिशील एवं एक भी समाजविघातक शोध न करनेवाला प्राचीन ‘हिंदु विज्ञान’ था । पूर्वकालके शोधकर्ता हिंदु ऋषियोंकी बुद्धिकी विशालता देखकर आजके वैज्ञानिकोंको अत्यंत आश्चर्य होता है । पाश्चात्त्य वैज्ञानिकोंकी न्यूनता सिद्ध करनेवाला शोध सहस्रों वर्ष पूर्व ही करनेवाले हिंदु ऋषिमुनि ही खरे वैज्ञानिक शोधकर्ता हैं । ********************************************** गुरुत्वाकर्षण का गूढ उजागर करनेवाले भास्कराचार्य ! भास्कराचार्यजीने अपने (दूसरे) ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथमें विषयमें लिखा है कि, ‘पृथ्वी अपने आकाशका पदार्थ स्व-शक्तिसे अपनी ओर खींच लेती हैं । इस कारण आकाशका पदार्थ पृथ्वीपर गिरता है’ । इससे सिद्ध होता है कि, उन्होंने गुर

तीर्थ

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तीर्थ सब तीर्थ बहुत ख्‍याल से बनाये गए है। अब जै कि मिश्र में पिरामिड है। वे मिश्र में पुरानी खो गई सभ्‍यता के तीर्थ है। और एक बड़ी मजे की बात है कि इन पिरामिड के अंदर….। क्‍योंकि पिरामिड जब बने तब, वैज्ञानिको का खयाल है, उस काल में इलैक्ट्रिसिटी हो नहीं सकती। आदमी के पास बिजली नहीं हो सकती। बिजली का आविष्‍कार उस वक्‍त कहां, कोई दस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है, कई बीस हजार वर्ष पुराना पिरामिड है। तब बिजली का तो कोई उपाय नहीं था। और इनके अंदर इतना अँधेरा कि उस अंधेरे में जाने का कोई उपाय नहीं है। अनुमान यह लगाया जा सकता है कि लोग मशाल ले जाते हों, या दीये ले जाते हो। लेकिन धुएँ का एक भी निशान नहीं है इतने पिरामिड में कहीं । इसलिए बड़ी मुश्‍किल है। एक छोटा सा दीया घर में जलाएगें तो पता चल जाता है। अगर लोग मशालें भीतर ले गए हों तो इन पत्‍थरों पर कहीं न कहीं न कहीं धुएँ के निशान तो होने चाहिए। रास्‍ते इतने लंबे, इतने मोड़ वाले है, और गहन अंधकार है। तो दो ही उपाय हैं, या तो हम मानें कि बिजली रही होगी लेकिन बिजली की किसी तरह की फ़िटिंग का कहीं कोई निशान नहीं है। बिजली पहुंचाने का कुछ

स्वर का सँक्षिप्त विज्ञान

प्राचीन भारत का वाणी , स्वर तथा संगीत विज्ञान: ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ प्राचीन भारत में वाणी विज्ञान का बहुत गहराई से विचार किया गया। ऋग्वेद में एक ऋचा आती है- चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण: गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥ [ऋग्वेद १.१६४.४५] अर्थात् - वाणी के चार भाग होते हैं, जिन्हें विद्वान मनीषी जानते हैं। इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं। इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए पाणिनी कहते हैं, वाणी के चार वर्ण या रूप हैं- १. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी जब मन, बुद्धि तथा अर्थ की सहायता से मन: पटल पर कर्ता, कर्म या क्रिया का चित्र देखता है, वाणी का यह रूप पश्यन्ती कहलाता है। लेखक सुरेश सोणी जी कहते है - "हम जो कुछ बोलते हैं, पहले उसका चित्र हमारे मन में बनता है। इस कारण दूसरा चरण पश्यन्ती है।" इसके आगे मन व शरीर की ऊर्जा को प्रेरित कर न सुनाई देने वाला ध्वनि का बुद्बुद् उत्पन्न करता है। वह बुद्बुद् ऊपर उठता है तथा छाती से नि:श्वास की सहायता से कण्ठ तक आ