कुण्डलिनी-शरीर की अपार आँतरिक शक्ति

कुंडलिनी शक्ति
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संसार के सभी धर्मों और संस्कृतियों में किसी न किसी प्रकार एक शक्ति का विवरण जरुर मिलता है ,वह है कुंडलिनी शक्ति |इसका स्वरुप और विवरण हर समुदाय -धर्म -संस्कृति के अनुसार भिन्न होता है किन्तु सभी इसका अस्तित्व मानते जरुर हैं किसी न किसी रूप में और कहते हैं की ऐसी एक शक्ति हर प्राणी में है जो उसे ब्रह्मांडीय शक्ति से जोडती है |
भारतीय समाज और सनातन संस्कृति में इसे सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त है और इस पर सबसे अधिक कार्य भी हुआ है |सनातन धर्म इसके प्रत्येक रहस्य को जानता है और समझता है की यही वह शक्ति है जो मनुष्य को ईश्वर बनती है अथवा अथवा ब्रह्माण्ड की नियंता शक्ति से मिलाती है |इसलिए ही सनातन संस्कृति में इसको ही जगाने के अनेक विधियाँ प्रचलित हैं |प्रत्येक पद्धति इसे अपने विशिष्ट प्रकार से जगाने और प्राप्त करने की विधि बताता है |चाहे तंत्र मार्ग हो ,योग मार्ग हो अथवा कोई भी साधना मार्ग सबका मूल इसे जगाना और इसे उर्ध्वमुखी कर सहस्रार से मिलाकर ब्रह्मांडीय नियंता शक्ति से संपर्क करना और उसमे मिलाना ही होता है |पाश्चात्य संस्कृति भी इसके लिए अपने विधि विकसित कर रही है यद्यपि वह सब भी कहीं न कहीं से भारतीय विधियों से ही प्रेरित हैं |
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 क्या है कुंडलिनी
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कुंडलिनी एक दिव्य शक्ति है जो सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार में स्थित है |जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक व्यक्ति सांसारिक विषयों की और भागता रहता है |परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो ऐसा प्रतीत होने लगता है की कोई सर्पिलाकार तरंग है जो घूमती हुई ऊपर उठ रही है |यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है |कुंडलिनी का एक छोर मूलाधार चक्र पर है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारो तरफ लिपटा हुआ जब उपर की और गति करता है तो उसका उद्देश्य सातवें चक्र सहस्रार तक पहुँचना होता है ,लेकिन यदि व्यक्ति संयम ,ध्यान छोड़ देता है तो यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है |
हमारी प्राणशक्ति के केंद्र कुंडलिनी को अंग्रेजी भाषा में surpent power कहते है ||पहले विज्ञानं भी इसको नहीं मानता था ,क्यूंकि वे खुद इसके अनुभवी नहीं थे ,पर आज ऊर्जा चक्रों की ऊर्जा वे देख चुके हैं तो वो आगे खोज कर रहे हैं |आज वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं की कुछ तो विशेष है जो दिखाई नहीं देता और जिसे अभी प्रमाणित किया जाना बाकी है ,पर वह सबसे विशेष है और उसकी शक्ति असीमित है |
ऋग्वेद ६ १६ १३ में एक मन्त्र आता है
तवामग्ने पुष्कराद्ध्यथर्वा निर्मंथत |मूर्ध्ना विश्वस्य वाघत ||
कुछ लोगों को लगता है की कुंडलिनी शक्ति जादू है पर ये हमारे शरीर की ही ऊर्जा है जो सभी ऊर्जा चक्रों पर पूर्ण नियंत्रण के बाद जागती है और हमारे पूर्वज इसे जानते थे |तभी ये अधिकतर लोगों को सुना-सुना लगता है |
कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी के सबसे निचले हिस्से में नाभि के नीचे मूलाधार में सोई हुई अवस्था में रहती है |
शास्त्रों में कुण्डलिनी को अनेक शक्तियों का प्राण कहा है। सुषुप्त पड़ी कुण्डलिनी को जागृत कर लेने वाला इस लोक के अनन्त ऐश्वर्य का स्वामी वन जाता है। भारतवर्ष में इस विद्या की शोध की गई है। कुण्डलिनी शक्ति की कोई सीमा और थाह नहीं है। किन्तु कुण्डलिनी जागृत कर लेना जीव का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। जीव का अन्तिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति या ब्रह्म निर्वाण। अपने आपको ब्रह्म की सायुज्यता में पहुँचा देना ही मनुष्य देह धारण करने का उद्देश्य है | अनेक साधन और योग उसी के लिये बने हैं। कुण्डलिनी का भी वही उद्देश्य है उस पर अपनी टिप्पणी करते हुए योग प्रदीपिका में लिखा है-
उद्घाटयेत्कपार्ट तु यथा कुँचिकया हठात्।
कुँडलिन्या तथा योगी मोक्ष द्वारं विभेदयेत्॥
(105)
अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य अपने बल से द्वार पर लगी हुई अगँला आदि को ताली से खोलता है उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी के अभ्यास द्वारा सुषुम्ना के मार्ग का भेदन करता है और ब्रह्म-लोक में पहुँच कर मोक्ष को प्राप्त होता है।
 संसार में अनेक प्रकार के जीव पाए जाते हैं सभी प्राणियों की शरीर की रचना में यद्यपि बहुत अन्तर होता है फिर भी आँतों में घिरी हुयी ड़ड़ड़ड़ नाम की एक ऐसी नाड़ी है जो संसार के सभी जीवों में एक सी पायी जाती है। वीणा के मूल भाव में स्थित गोलाई, जल के भंवर और कुण्डल के चक्र के समान आकृति वाली इस नाड़ी का बीच चेतना के महत्त्वपूर्ण सम्भव माना जाता है। वही से सैकड़ों नाड़ियाँ निकलकर शरीर के विभिन्न प्रदेशों तक फैली जाती है। यह नाड़ी देखने में ऐसी लगती है जैसे शीत से सिकुड़कर कोई सर्पिणी कुण्डली मारकर सो गई हो। उसकी आकृति के अनुसार ही उसे कुण्डलिनी नाम से सम्बोधित किया गया है। यह नाड़ी ही जीव चेतना का सम्पूर्ण आधार है। उसी से जीवधारियों को शक्ति और तेजस्विता मिलती है, |सामान्य स्थित में जिस व्यक्ति की कुण्डलिनी शक्ति जितनी मात्रा में स्पन्दन करती है, उतना ही प्रभाव क्षेत्र, उस मनुष्य का होता है। उसी के आधार और अनुपात से लोगों को सुख-दुःख आदर सम्मान, लोक प्रतीक्षा आदि मिलती है। इसीलिये कहना न होगा कि मनुष्य के स्थूल जीवन ही नहीं व्यवहारिक जीवन की सफलता और समुन्नति का आधार भी कुण्डलिनी शक्ति ही है।
पाँचों प्रकार के ज्ञान इन्द्रियाँ भी बिजली के तारों की तरह इसी परम शक्ति से जुड़ गयी है इसलिये वह सूक्ष्म चेतना होने के कारण चिति, जीने से जीव, मनन करने से मन और मोक्ष प्राप्त करने से चेतना को विधि रूप में देखा जाता है। अहंकार रूप से उस ही ड़ड़ड़ड़ कहते है। इस पर विभिन्न नामों का एक ही आधार है। चेतना इन चेतना को शक्तियों को मूलाधार शक्ति को ही कुण्डलिनी कहा जाता है। ज्ञान और अनुभव के पाँचों कोष के बीच रूप से इसी में पायी जाती है, इसलिये कुण्डलिनी शक्ति जागृत कर लेने वाला इन्द्रियों को उसी तरह पक्ष में कर देता है जिस तरह लगाम लगे हुये घोड़ों को वश में कर लिया जाता है जिसने इन्द्रियों को जीते लिया संसार में उसका भय जो निर्भय हो गया वही विजय-विजेता हो गया।
कुण्डलिनी की इन्हीं महान् सामर्थ्यों को बन कर ही योग शाखों ने उसे सर्वाधिक महत्व दिया गाया है उसके साथ अनेक प्रकार की कल्पनायें जोड़ दी गयीं है। अनेक प्रकार से वर्णन किया जाता है। सीधे सरल शब्दों में कुण्डलिनी वह दिव्य मानस तेज है जो आत्म-चेतना के परिसिक्त है। और शरीर भर में व्याप्त है। साधना के फलस्वरूप वह तेज उभर कर ध्यान के समय ज्योति बनकर देह में कार्य करने लगता है।

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