गायत्रीमँत्र
⚛️ गायत्री मन्त्र अर्थ चिंतन ⚛️
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ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
शब्दार्थ - ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यः (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात (प्रेरित करें)।
भावार्थ - उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
चिंतन - इस अर्थ का विचार करने से उसके अन्तर्गत तीन तथ्य प्रकट होते है : १- ईश्वर के दिव्य गुणों कार चिन्तन, २- ईश्वर को अपने अन्दर धारण करना, ३- सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिए प्रार्थना। यह तीनों ही बातें असाधारण महत्त्व की हैं।
(१) ईश्वर के प्राणवान् दुःख रहित, आनन्द स्वरूप, तेजस्वी, श्रेष्ठ, पाप रहित, देव गुण- सम्पन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपयुक्त विशेषताएँ हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्य पद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन- दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती है।
(२) गायत्री मन्त्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने, अपने रोम- रोम में बसा लेने, परमात्मा को संसार के कण- कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर- दर्शन का आनन्द प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में ही रहना अनुभव करता है।
(३) मन्त्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्त्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिये, क्योंकि यह एक ऐसी महान् भगवत कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख सम्पदायें अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।
इस मन्त्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य गुणों को प्राप्त करने, दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है कि अपनी बुद्धि को सात्विक बनाओ, आदर्शों को ऊँचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिए हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे- जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जायेगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनन्दों की अभिवृद्धि होती जायेगी।
गायत्री मन्त्र के गर्भ में सन्निहित उपयुक्त तथ्य में ज्ञान,भक्ति, कर्म, उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिन्तन ज्ञानयोग है। ब्रह्म की धारण भक्ति योग है और बुद्धि क सात्विकता एवं अनासक्ति कर्म योग है। वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना यह तीन विषय हैं। गायत्री में भी बीज रूप में यह तीनों ही तथ्य सर्वांगपूर्ण ढंग से प्रतिपादित हैं।
इन भावनाओं का एकान्त में बैठकर नित्य अर्थ चिन्तन करना चाहिए। यह ध्यान साधना मनन के लिये अतीव उपयोगी है। मनन के लिए तीन संकल्प नीचे दिये जाते हैं। इन संकल्पों के शब्दों को शान्त चित्त से, स्थिर आसन पर बैठकर, नेत्र बन्द रखकर, मन ही मन दुहराना चाहिए और कल्पना शक्ति की सहायता से इन संकल्पों का ध्यान चित्र मनः क्षेत्र में भली प्रका अंकित करना चाहिए।
🌹जय माँ गायत्री🌹
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ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
शब्दार्थ - ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यः (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात (प्रेरित करें)।
भावार्थ - उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
चिंतन - इस अर्थ का विचार करने से उसके अन्तर्गत तीन तथ्य प्रकट होते है : १- ईश्वर के दिव्य गुणों कार चिन्तन, २- ईश्वर को अपने अन्दर धारण करना, ३- सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिए प्रार्थना। यह तीनों ही बातें असाधारण महत्त्व की हैं।
(१) ईश्वर के प्राणवान् दुःख रहित, आनन्द स्वरूप, तेजस्वी, श्रेष्ठ, पाप रहित, देव गुण- सम्पन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपयुक्त विशेषताएँ हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्य पद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन- दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती है।
(२) गायत्री मन्त्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने, अपने रोम- रोम में बसा लेने, परमात्मा को संसार के कण- कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर- दर्शन का आनन्द प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में ही रहना अनुभव करता है।
(३) मन्त्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्त्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिये, क्योंकि यह एक ऐसी महान् भगवत कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख सम्पदायें अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।
इस मन्त्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य गुणों को प्राप्त करने, दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है कि अपनी बुद्धि को सात्विक बनाओ, आदर्शों को ऊँचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिए हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे- जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जायेगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनन्दों की अभिवृद्धि होती जायेगी।
गायत्री मन्त्र के गर्भ में सन्निहित उपयुक्त तथ्य में ज्ञान,भक्ति, कर्म, उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिन्तन ज्ञानयोग है। ब्रह्म की धारण भक्ति योग है और बुद्धि क सात्विकता एवं अनासक्ति कर्म योग है। वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना यह तीन विषय हैं। गायत्री में भी बीज रूप में यह तीनों ही तथ्य सर्वांगपूर्ण ढंग से प्रतिपादित हैं।
इन भावनाओं का एकान्त में बैठकर नित्य अर्थ चिन्तन करना चाहिए। यह ध्यान साधना मनन के लिये अतीव उपयोगी है। मनन के लिए तीन संकल्प नीचे दिये जाते हैं। इन संकल्पों के शब्दों को शान्त चित्त से, स्थिर आसन पर बैठकर, नेत्र बन्द रखकर, मन ही मन दुहराना चाहिए और कल्पना शक्ति की सहायता से इन संकल्पों का ध्यान चित्र मनः क्षेत्र में भली प्रका अंकित करना चाहिए।
🌹जय माँ गायत्री🌹
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