भारत--- एक दृष्टि अतीत और वर्तमान के सँदर्भ मे

सनातन धर्म और आधुनिक भौतिकवाद ।

बड़ा आश्चर्य है धर्म को समझे बिना ही कथित नास्तिक धर्म पर प्रहार करने लगते हैं , कि 'धर्म ने विज्ञानके द्वारा भौतिक उत्कर्ष नहीं होने दिया और सदियों तक राष्ट्रको गुलाम रखा ।'

धर्म को केवल मन्दिर जाकर घण्टा बजाना और अगरवत्ती लगाना समझ रखा है ,तभी ऐसी दुरागृहपूर्ण बातें करते हैं । धर्म के चार चरण धर्म अर्थ काम मोक्ष हैं जो बिना अर्थ और काम के सम्भव ही नहीं ,यही वैदिक भौतिकवाद है , हमारे धर्मज्ञ ऋषियों ने तो यन्त्रविज्ञानका विरोध किया है और न ही भौतिकवादका ही । लङ्का तक सेतु बनाने में भी श्रीरामकी सेना ने बड़े बड़े पत्थरों को ले जाने के लिये यन्त्रोंका ही सहारा लिया था -"पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रै: परिवहन्ति च ।"(युद्ध०२२/६०)       ऋषियोंने धर्म पालनके लिये अर्थ को आवश्यक बताया है -"तस्मात्पूर्वमुपादेयं वित्तमेव गृहैषिणा ।"(भविष्य०ब्रह्म०६/६) और अर्थके बिना समस्त धर्म कार्य निषेध किये गए हैं --"तद्वदर्थविहीनां सर्वत्र नाधिकारिता ।"(भविष्य०ब्रह्म०६/१३)    फिर भी दुराग्रह पूर्वक यह कहना कि धर्मज्ञ मनीषी यन्त्रविज्ञान और भौतिकता के विरोधी थे ,यह कहना अन्याय होगा । रामराज्यमें पुष्पक विमान जिसे काल्पनिक लगता है उसे कमसे कम आदिकविकी कल्पना पर तो मन्थन करना ही चाहिये , आखिर भौतिकता और यन्त्र विज्ञानके विरोधी ऋषि कल्पनाओं में भी ऐसा वर्णन क्यों करने लगे ? आस्तिक हिंदुओंके लिये तो ऋग्वेदके अश्विनी कुमारों के विमान ,रावणका पुष्पक विमान और त्रिपुरों व शाल्वका शोभ विमान ऐतिहासिक सत्य हैं । भौतिकवादी नास्तिकों को इन पर बेशक विश्वास न हो , महर्षि भरद्वाज रचित 'यन्त्रसर्वस्व' , महर्षि अगस्त्य रचित 'अगस्त्य संहिता' और सम्राट भोज परमार रचित 'समरांगणसूत्र' अवश्य पढ़ना चाहिये जिनमें विमान और विद्युत् शैल बनाने की विधि वर्णित है ,इन्हें कम से कम यन्त्रविज्ञान और भौतिकवादका विरोधी नहीं कहा जा सकता । १७वी शतीमें चार वैज्ञानिक यन्त्रोंमयी वैधशालाओं का निर्माण करने वाले राजा सवाई मिर्जा जय सिंह भी एक धार्मिक राजा थे जिन्होंने २ अश्वमेध यज्ञ किये थे ।      इस सबका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं कि वैदिक विज्ञानं की उपेक्षा करके वेद विहीन यन्त्रविज्ञान और भौतिकवाद की अति हो । विज्ञान के नाम पर प्रकृतिका दोहन कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता है । धर्म और आधुनिक वेदविहीन विज्ञान ने हमें क्या दिया है ? इस पर विश्लेषण करते हैं , चलिये आपकी बात मान लेते हैं ,कि धर्म ने कोई वैज्ञानिक आविष्कार नहीं किया ,आपके लिये सब पाखण्ड है सब काल्पनिक बातें हैं जिसके कारण पिछड़े ही बने रहे और आधुनिक विज्ञानने हमे प्रगति दी है । यदि धर्म ने कुछ नहीं दिया तो आयुर्वेदके स्वास्थ्य ,योगके द्वारा निरोग और ध्यानके द्वारा मानव को परम् शान्ति का प्रकल्प मनुष्य को किसने दिया ? जिसे आज समूचा विश्व मानने को बाध्य हो चुका है ,विश्वयोगा दिवस , मेडिटेशन और एक्यूप्रेसर-एक्युपंचर आदि वैदिक विधा नहीं तो क्या है ?  पुरातात्विक प्रमाणोंसे हिन्दू संस्कृति कमसे कम १०,००० वर्ष पुरानी सिद्ध है , किसी भी देशकी संस्कृतिसे धर्म सूत्र में मणियों की तरह पिरोया हुआ होता है , हमारे धर्मज्ञ मनीषियोंने सदैव प्रकृतिका पोषण किया है , अग्नि ,सूर्य,वरुण ,नदी ,वन और पर्वतोंके रूप में सदैव प्रकृतिका पूजन किया है ,संरक्षण किया है ,कभी प्रकृति को विज्ञान और विकास के नाम पर कुपित और क्षुब्ध नहीं किया । हजारों वर्षों से नदियों-वनों-पर्वतों और प्राणवायु को निर्मल बनाये रखा । भागवताकार ऋषिके द्वारा श्रीकृष्णकी व्रजलीलाका चरित्र भी प्रकृतिका संरक्षण और शोधन है । विषैली यमुनाको विषमुक्त करके जल शोधन -'तदैव सामृत जला यमुना निर्विषाभवत् ।(भा०१०/१७/६७) के द्वारा नदियोंका निर्मलीकरण-शुद्धिकरण जहाँ चरितार्थ है, वहीं -'नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिन:'(भा०१०/२४/२४) गोवर्धन पूजन से पूर्व वनों पर्वतोंके संरक्षण और संवर्धन का महत्त्व बताते हैं । धर्मने जहाँ -"नाप्सु मूत्रं पुरीषं वा ष्ठीवनं वा समुत्सृजेत् ।"(मनु०४/५६)  जल में मल-मूत्र त्यागना और थूकना निषेध किया है , वहीं आधुनिक भौतिकवादने नदियों में मल-मूत्र और कारखानों के नाले डालकर दूषित ही किया है
कहने का अर्थ है जहाँ वैदिक विज्ञानं ने १०,००० वर्षों में प्रकृति की पूजा की , नदियोंको निर्मल और वनों-पर्वतों की सुरक्षाकी वहीं प्रकृति को कुपित , नदियों को मैला करके क्षुब्ध और लुप्त के कगार पर किसने पहुंचाया ? वनों का अन्त और ८०% ग्लेशियर को किसने नष्ट किया ? अर्थात् जो कार्य धार्मिक मनीषी १०,००० वर्षों में नहीं कर पाये ,वह प्रकृति को कुपित और नदियों को क्षुब्ध करने का कार्य आधुनिक भौतिकवादियोंने १ शतीसे भी कम समय में कर दिखाया ।वायुमण्डल में प्राणवायु (ऑक्सीजन) की कमी का उत्तरदायी कौन है ? आज दिल्ली में स्वांस लेना भी मुश्किल हो गया है इसका उत्तरदायी कौन है ? यदि इसी प्रकार अंधाधुंध विज्ञानके नाम पर विनाश होता रहा तो वो समय दूर नहीं जब मानव सभ्यता रसातल में पहुँच जाएगी । हम नहीं कह रहे यन्त्रविज्ञान का उपयोग न करो , लेकिन केवल यन्त्रों के अधीन होकर रह जाओगे तो विकास के गर्भ से विनास निकलेगा ही । विकास का उद्देश्य होता है मानव जीवन को सुगम और आसान बनाना जिससे बहुमूल्य समय बचाया जा सके ,लेकिन इसका अर्थ ये नहीं स्वयं अकर्मण्य ही हो जाओ , मान लीजिए १ बच्चे को जन्म से इतनी सुबिधा दी जाएं कि उसे कोई काम न करना पड़े , जन्मते ही ऐसीकार में बैठकर ही हर जगह घुमाया जाए , कभी उसे १ कदम चलने न दिया जाए ,तो इसका परिणाम क्या होगा ? निश्चित है उस बच्चेके पैर निष्क्रिय हो जाएंगे ,इसे आप विकास कहेंगे या विनास ?

कुछ लोग कहते हैं ,अंग्रेजोंने आकर भारतका विकास किया । ये उन लोगोंका भ्रम ही है , इतिहास-भौतिकवाद और मार्क्सवाद हमने भी पढ़ा है । जो स्थिति आज विश्वमें अमेरिकाकी है , उपनिवेशकाल में जो स्थिति ब्रिटेनकी थी ,वही स्थिति १८वीं शती तक भारतकी थी । सिन्धु सभ्यतासे लेकर मुग़लकाल तक भारतकी आर्थिक स्थिति विश्वको चकाचौंध करती रही , यह स्थिति बिना भौतिक विकासके सम्भव थी क्या ? पाणिनिकाल ,मौर्यकाल,गुप्तकाल ,हर्षवर्द्धनकाल और राजपूतकाल तक भारत में समृद्धि-कला-शिक्षाकी श्रृंखला अपरिच्छिन्न बनी रही । १२३५ वर्षों तक (७१२ ई से १९४७ ई तक ) जिस राष्ट्र को निरन्तर लूटा गया हो क्या वो राष्ट्र विकासरहित था ये सम्भव है ? इस राष्ट्रमें वाराहमिहिर, आर्य भट्ट , भास्कराचार्य जैसे वैज्ञानिकोंने विश्वको गणित सिखाया , जिस देशके तक्षशिला विश्वविद्यालय ,नालन्दा विश्वविद्यालय ,विक्रमशिला विश्वविद्यालय और ऐसे हजारों शिक्षण संस्थान जिसमे पढ़ने आते थे , जिस देशके लोह इस्पात की विश्वमें कोई बराबरी नहीं थी ,१६०० बर्ष पुराना मेहरौली लोह स्तम्भ इस बात की गवाही दे रहा है , वह देश अंग्रेजोंने विकसित किया यह कोरी बकवास नहीं तो क्या है ?  भारतने विश्व बाजारमें अपनी जो स्थिति बनाई थी वह हिंसा और लूट के जरिये नहीं बनाई थी । उसने खुली आर्थिक प्रतिद्वन्दिता में अपनी यह स्थिति बनाई थी । यही कारण है ,यूरोप का सोना भारतीय माल के विनियम में यहाँ भेजा गया ।  मार्क्स ने लिखा है -"अनादि कालसे यूरोप भारतीय श्रमसे तैयार की गई सुन्दर वस्तुएँ प्राप्त करता रहा और बदले में अपनी कीमती धातुएँ भेजता रहा ।" यूरोप के सौदागर भारतीय मालके बदले सोना देने को बाध्य थे क्योंकि उसके बदले  में उनके पास देने लायक माल कोई था नहीं ।
अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मार्क्सवादी विचारक डॉ०रामविलास शर्मा लिखते हैं -- ' भारतीय समाज परिवर्तनशील और विकासमान था , सामूहिक संपत्ति वाले ग्राम-समाजोंका अपरिवर्तनशील भारत अंग्रेजों की गढ़ी गयी दन्तकथा मात्र है '(भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद पृष्ठ १३)

वहीं दुसरी जगह लिखते हैं -'भारतमें अंग्रेजी राज कायम होने के बाद विश्व बाजार में भारतकी स्थिति उलट गई ; पहले वह इस विश्व बाज़ार में माल सप्लाई करता था अब वह विलायत के माल का गोदाम बन गया । '  , ' यह बात मार्क्स ने यों कही : "अनादि कालसे भारत दुनिया के लिये सूती माल पैदा करने वाला बड़ा कारखाना था ,अब वह विलायती बटे हुए धागे और सूती माल की बाढ़ से भर गया " ( वहीं पृष्ठ १)      इसीलिए यह कहना कि अंग्रेजोंने भारतमें विकास किया , इससे स्वयं को धोखा देना ही होगा । अंग्रेजोंके आने के बाद भारतकी स्थिति रसातल में चली गयी । अंग्रेजोंने जो रेल आदि चलाई वह भी भारतीय माल के लूट के लिये न कि भारतके आर्थिक विकासके लिये -'रेल चलाने से अंग्रेजों की शोषण व्यवस्था सुदृढ़ हुई , परन्तु इससे भारतका औद्योगिक विकास होने वाला नहीं था ।" (वहीं पृष्ठ १६)
भारत यदि विकसित नहीं था तब विदेशी क्यों भारत पर लट्टू थे ? मैक्समूलर (जर्मन विद्वान्) ने कहा था- 'मुझसे यदि कोई पूछे कि किस आकाश तले मानव मन अपने अनमोल उपहारों समेत पूर्णतया विकसित हुआ है , जहाँ जीवन की जटिल समस्याओं का गहन विश्लेषण हुआ और समाधान भी प्रस्तुत किया गया ,जो उनसे भी प्रशंसा का पात्र हुआ जिन्होंने प्लेटो और कांट का अध्ययन किया तो मैं भारतका नाम लूंगा ।'

रोम्यारोला (फ्रांस ) ने कहा था -- मानव ने आदिकालसे जो सपने देखने शुरू किये ,उनको साकार होने का इस धरती पर कोई स्थान है तो वि है भारत ।"

ऐसे में कोई यदि १८ वीं शती तक के भारत को विकास रहित कहे तो यह उसका अज्ञान ही होगा ।

यद्यपि  भौतिकवाद और यन्त्रविज्ञानकी मानव जीवनमें उपयोगिता किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है सभी जानते हैं कितनी उपयोगिता है ,तथापि आधुनिक भौतिकवाद और यन्त्रविज्ञानकी अतिने जो क्षति की है ,उसका भी विश्लेषण कर लेना चाहिये ।   एक आध्यात्मिक राष्ट्रके राजा का उद्घोष है - " न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपो नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ।"(छान्दोग्योपनिषद् ५/११/५)   - 'मेरे राज्यमें कोई चोर नहीं है तथा न अदाता , न मद्यप , न अनाहिताग्नि , न अविद्वान् और म परस्त्रीगामी ही है फिर स्वेच्छाचारी नारी तो आयी ही कहाँ से ? '        यह आदर्श तो एक आध्यात्मिक राष्ट्रके राजाके राज्यका  ही हो सकता है , किन्तु भारतीय ऋषियोंकी वाणी पर आधुनिक भौतिकवादियों को विश्वास नहीं है लेकिन भारतीयोंके चरित्र की विदेश भी सदैव गुणगान करते रहे हैं , ३०० ई पू में ग्रीक राजदूत मेगास्थनीजने कहा था - "भारतियोंके पास परिचयपत्र नहीं होते , उनकी जुवान ही उनका प्रमाण है , वे सदैव सत्य ही बोलते हैं । "  , "भारतमें किसी भी घर में ताले नहीं देखे "(अर्थात् चोरों से शून्य था भारतवर्ष) ।
 ३९९ ई में आये चीनी यात्री फाह्यानने कहा था - "अधिकतर व्यक्ति धनवान ,धर्मप्रेमी, दानशील तथा अहिंसाके अनुयायी हैं । चोरोंका तो नामो निशान ही नहीं है ।"
मार्कोपोलोने कहा था -"हिन्दू अपनी सत्यवादिताके लिये प्रसिद्ध है और पृथ्वीपर किसी भी वस्तुके लिये वे झूठ नहीं बोलेंगे । "

१९ वीं शती में भारतीय किसानों के मध्य रहे ब्रिटिश अधिकारी सर विलयम स्लीमैन ने कहा था - "मेरे सामने एड अनेक उदाहरण है , जिनमे किसी व्यक्ति की संपदा ,आजादी और जीवन उसके एक झूठ पर निर्भर हो फिर भी उसने झूठ बोलने से इंकार कर दिया हो ।"

१९ वीं शती तक धर्म की भावना प्रत्येक व्यक्तिमें दृढमूल थी , लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीतिने आध्यात्म की भावना समाप्त करके भोगवादी-भौतिकवाद की भावना कूट-कूट भारतीयों में भर दी । इसका परिणाम क्या हुआ भौतिकवाद और भोगवादकी अंधी दौड़ में सभी दौड़ रहे हैं , भारतीयोंका चारित्रिक पतन हो चुका है , उनकी नजर में कैसे भी करके धन कमाओ ,सुख भोग आदि भौतिक ऐश्वर्यों को प्राप्त करना मात्र रह गया है इसके लिये किसी भी स्तर पर जा सकते हैं , आज भारत अपराधों का देश बन चुका है जो कभी अध्यात्मका देश था , कारण है नास्तिकता और भौतिकताकी अंधी दौड़ में अब न तो यमदूतों के पाशोंका कोई डर रहा है , न स्वर्ग को पाने की लालसा जो पाप-पुण्य का विचार करें । उनके लिये कोई यमराज नहीं कोई यमदूत नहीं तो पाप कर्म का दण्ड कौन देगा जो भी जीवन है यही जीवन है ,इसे जितना सुखमय और भौतिक बना लो फिर कहाँ जीवन मिलेगा क्योंकि न तो आत्मा होती है न पुनर्जन्म  , न कर्म बन्धन और न धर्मराज ही जो इन सबसे डरकर पाप कर्म न करें और भौतिकता के लिये कोई भी पाप करने से नहीं डरते । मैकाले की भौतिक और भोगवादी शिक्षा ने बचपन से यही दिमाग में भर दिया कि ये बन्दर के संतान हो , आत्मा जैसा कुछ नहीं होता , यह शरीर ही तुम हो इसी को पोषण में लगे रहो चाहे कोई भी अपराध करो।  किसका डर है ? आध्यात्मिक भारत में जहाँ सामूहिक परिवार थे वहीं भौतिक भारतमें परिवार केवल स्त्री-पुत्र तक ही सीमित रह गए हैं अपने जन्म दाता माता पिता भी भोगों के पीछे भागने वालों के लिये बोझ बन चुके है । आध्यात्मिक भारत से भोगी और आपराधिक भारत बनने में किसका योगदान है ? पूँजीपतियों के विरुद्ध श्रमवर्ग को खड़ा करने वाले , पूंजीपतियों को शोषक और श्रमवर्ग को शोषित बनाने वाले  मार्क्स के अनुयायी वामपंथी कहाँ गए ? आधुनिक यन्त्रोंने कारखानों में श्रमिकोंका रोजगार छीन लिया और वामपंथी चुप हैं । जिन कारखानों में हजारों की संख्या में मजदूर श्रमिकवर्ग काम करते थे आज एक ही ऑपरेटर बड़े बड़े यन्त्रों को ऑपरेट करता है और हजारों मजदूरोंका श्रमिकोंका कार्य एक अकेली मसीन कर देती है ,ऐसे में हजारों - लाखों और करोड़ों मजदूर-श्रमिक बेरोजगार हुए हैं ,अब क्यों नहीं श्रमिकवर्ग की याद आती है वामपंथियों को ? हस्त-कारीगरों और शिल्पियों की कला को छीनकर बेरोजगार बनाने वाली यन्त्र विज्ञान पर अब क्यों नहीं कोई मार्क्स पूँजीवादके विरुद्ध श्रमिकवर्ग को खड़ा करता है ? जब बेरोजगारी बढेगी तो अपराध बढ़ेंगे ही क्योंकि भौतिकवादकी अंधी दौड़ में वे कुचले जाएंगे तो ऐसे में उन्हें भी अंधी दौड़ में दौड़ना ही पड़ेगा और मजबूरी में अपराध करने को  विवश होंगे । भारत सहित विश्व में अपराधों से त्रस्त है क्योंकि बेरोजगारी हर देशमें है , अभी कुछ वर्षों में अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर आक्रमण हुए हैं इसका कारण भी वहां के निवासियो की बेरोजगारी है इसीलिए विदेशी लोगों पर हमले करते हैं , उन्हें लगता है उनकी नौकरी बाहरी लोगों ने छीनी है ,यदि ये न आएं तो हम बेरोजगार न रहे आदि , विकास किसका हुआ ? श्रमिकवर्ग का ?मजदूरों का ? कारीगरों का ? या पूंजीपतियोंका ? । आज यदि भौतिकवादकी अंधी दौड़ की जगह आध्यात्मिक भारत की कल्पना करें तो इन अपराधोंके लिये कोई जगह बचती है ? जहाँ आज गौ माँस भक्षण , शराब और वैश्यावृत्ति की खुली स्वतन्त्रता चाहते हैं , यह तो भौतिकवादी देश में ही सम्भव है , जहाँ एक वृद्धा माँ डेढ़ वर्ष तक बेटे की प्रतीक्षा करते करते कंकाल बन गयी । क्या यही विकास है ? क्या ये सब अध्यात्म ने दिया था भारत को ?   और कितना दृश्य दिखाऊं आपको ?  भारत कृषि प्रधान देश है , कृषि का अत्याधुनिक विकास हुआ है , फसलों की पैदावार बढ़ गयी है , लेकिन क्या कोई बताएगा , अनाज हों , सब्जी हों या फल ही हों इन्हें विषैला किसने बनाया ?  आज कोई भी खाद्य शुद्ध नहीं मिलता इसका जिम्मेदार कौन है ?  उत्तर आपके पास ही है अत्याधुनिक रसायनोंका कैमिकलोंका विकास और भौतिकवादकी अंधी रेस । क्योंकि सभी ज्यादा से ज्यादा भौतिक सुख भोग संसाधन प्राप्त करना चाहते हैं , इसके लिये चाहे दालों-अनाजों में सब्जियोमें और फलों में अत्यन्त घातक रसायनों-कैमिकलोंका ही प्रयोग क्यों न करना पड़े ? इसके परिणाम से सभी परिचित हैं , क्यों मिलावटके विरुद्ध आवाज उठाने की आवश्यकता हुई ? इसका जिम्मेदार कौन है ?       विरोध न तो भौतिकवादका है न यन्त्रविज्ञानका , विरोध है अतिवादका , भौतिकवाद और यन्त्र विज्ञानका प्रकृतिके साथ संतुलन बनाना आवश्यक है , अन्यथा विकासके गर्भ से विनाश ही निकलेगा ।
     

आप मेरी आलोचना कर सकते हैं, आप धर्म की आलोचना कर सकते हैं , लेकिन इस सत्य को छिपा नहीं सकते हैं कि पिछली एक शताब्दी में ही भौतिकवाद और यन्त्रविज्ञान की अति ने मानव सभ्यता के विनाश के मुँह पर लाकर खड़ा कर दिया है ।

आपने धर्म को भौतिक विकास में बाधा समझा यह आपकी भारी भूल है , अपने धर्म केवल कर्मकाण्ड और पूजापाठ ही समझा , आपने हिन्दू-मुस्लिम,सिक्ख-ईसाई आदि को धर्म समझ लिया किन्तु ये धर्म नहीं सम्प्रदाय हैं मत हैं   --

धर्मकी व्युत्पत्ति  --- 'धृञ् --धारणे'  धातुसे 'अर्तिस्तुसु.....' इस उणादि सूत्र द्वारा 'मन्' प्रत्यय होने पर 'धर्म' शब्द बनता है ।  जगत् के धारण तत्त्वका नाम  'धर्म' है  'धरति लोकोऽनेन ,धरति लोकं वा' ,धरति विश्वम् इति, धरति  लोकान् ध्रियते वा जनैरिति (अमरकोष १/६/३)     'धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजा:'( महाभारत )  जो जगत् को धारण करे ,जो प्रजा (मानव सभ्यता ) को धारण करे , जो प्रकृति को धारण करे वह धर्म है ।
"यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्मः'(वैशेषिक दर्शन १/२) जिससे अभ्युदय ( भौतिक जगत् में उत्कर्ष) और निःश्रेयस (परमात्माकी) की प्राप्ति हो वह धर्म है अर्थात् जिससे भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही लाभ हों वह धर्म है , इसीलिए ऐसा कहना मूर्खतापूर्ण ही है कि धर्म भौतिक विकास में बाधा है । अंधाधुंध प्रकृतिका दोहन मानव सभ्यता को रसातल में कुछ ही वर्षों में पहुंचा देगा जबकि धर्म से मानव सभ्यता को कभी भय नहीं हुआ न होगा ।  प्रकृति को कुपित करके वनों को काटकर ,नदियोंको क्षुब्धकरके जिस अंधाधुंध कॉंक्रीट के निर्माण को विकास के नामपर  क्रियान्वित और परिभाषित किया जा रहा है , वह विकास नहीं , विकास के नाम पर विनाश ही है । क्या नदियोंका स्वच्छता-निर्मलीकरण विकास नहीं होगा ? क्या वनोंका संरक्षण विकास नहीं होगा ?  

  ग्रीक के महान् दार्शनिक सुकरात  ने सही ही कहा था --

'वही व्यक्ति धनवान् है जो , प्रकृति के धन का सामग्रीके तौर पर सबसे कम इस्तेमाल करता है ।'
                    पँ.निरँजनप्रसाद
                             🌷🌹 वेदिका🌹🌷

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