भारतीय छँदपरँपरा पर एक विस्तृत आलेख
छँद
हमारी आत्मा से निसृत होने वाली सँगीतमयी रचना जो देवताओं को स्वर्ग से धरती पर आने को मजबूर कर दिया करती थी,,गँगाजैसी विराट नदियों को मानवरूप मे प्रकट कर देती थी।ये चमत्कार एक सहज मानवश्रम का ही प्रतिफल थी।
“ये भारत की आत्मा थी पर यही इस देश का दुर्भाग्य रहा कि हम अपने ही ज्ञान को भूल गए क्योंकि उसे अब कोई पढाता ही नहीं और हमारे ही देश का युवा sine थीटा पढ़ कर कहता है, अरे ! ये तो पश्चिमी विज्ञान की देन है | जबकि ऐसा नहीं है | ये सारा ज्ञान हमारे ही देश से गया हुआ है | हमारा देश विश्व ज्ञान का केंद्र था और यहीं से विद्या और विज्ञान का विश्व स्तर पर प्रसार हुआ करता था | पर आज वही सब बातें हम पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था के हिसाब से सीख रहे हैं, इसलिए उसे भ्रमवश पश्चिमी ही समझते हैं |
हमारे ही देश के बच्चों को अपनी ही जड़ों से दूर किया जा रहा है | उनके दिमाग को खोखला किया जा रहा है | उनको रिसर्च से, वेदों से, शास्त्रों से दूर किया जा रहा है और उनके दिमाग में भरा जा रहा है कि पश्चिम विज्ञान बड़ा उन्नत है |” -, ये बहुत प्रारंभिक स्तर की बातें हैं | सोचो, यदि ये बातें आजकल के बच्चो को पढाई जाएँ तो वो इस से भी चार कदम आगे बढ़ेंगे | जो अभी प्राप्त नहीं है, उसे खोज सकेंगे पर ये तभी हो पायेगा, जब आज के लोग इसे जाने | लेकिन हतोभाग्य भारत ! जिस देश में नौकर भी संस्कृत बोला करते थे, उस देश के लोग अब ठीक से हिन्दी भी नहीं जानते | शास्त्रों पर रिसर्च की बात कौन करे, जब कोई उन्हें पढ़ भी न पाए आज के समय में | केशवदास ने एक समय कहा था -
“भाषा बोल न जानहीं, जिनके कुल के दास ।
तिन भाषा कविता करी, जडमति केशव दास ।।”
जिनके कुल के दास भी, भाषा, जिसे लोग अब हिंदी कहते हैं, बोलना नहीं जानते थे उस कुल में केशवदास जी भाषा के (हिंदी के) कवि हुए और उसके लिए स्वयं को वो जड़मति बता रहे हैं |जानते हो केशवदास जी कौन थे ?”
“हाँ, बचपन में पढ़ा था -
सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केशवदास।
अबके कवि खद्योत सम जह-तह करत प्रकाश।। (1*)
सूरदास यदि, काव्य जगत में सूर्य के सामान हैं तो तुलसीदास चंद्रमा के समान ज्योति वाले हैं और केशवदास जी की तुलना तारों के प्रकाश से की गयी है और आजकल के कवियों को जुगुनू के समान बताया गया है, जो कभी कभी चमकते हैं |”
“हाँ, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी ने यही कहा है और इसे माना भी है क्योंकि समाज में कोई बात ऐसे ही नहीं बन जाती, पूरी पूरी जिंदगी लग जाती है, समाज में ऐसी बात आने में, पर उन्होंने भी इसे बिलकुल सही कहा है | सोचो, कवि जिसकी ऐसी उपमा दी गयी हो, वो खुद कहता है कि मैं मंदमति हूँ, जड़मति हूँ | क्यों ? क्योंकि वो संस्कृत के कवि नहीं हुए और भाषा (हिंदी) में कवितायें करते थे | जिस समय पर सभी लोग संस्कृत बोलते थे, उस समय में, रायप्रवीण को सिखाने के लिए, केशवदास जी हिन्दी के शास्त्र कहाँ से लाते सो उसको काव्य सिखाने के लिए, उन्होंने भाषा का “कविप्रिया” नामक लक्ष्मण ग्रन्थ लिखा | जानते हो क्यों ? क्योंकि संस्कृत में कविता छंदों में कही जाती थी और उसके कुछ सेट रूल थे, जिनके हिसाब से काव्य रचना की जाती थी, जो कतई आसान नहीं था | ऐसे नियमो के तहत छंदों से घिरे हुए, काव्य की रचना के ग्रन्थ को ही छंद शास्त्र कहा जाता है |
जब संस्कृत के छंदों में रचना करना मुश्किल हो गया तो फिर लौकिक छंदों की रचनाएं की गयी, भाषा में, कविताओं के स्तर को बचाने के लिए, भाषा में छंदों का निर्माण किया गया, जिसमें दोहा, सोरठा, चौपाई, आल्हा, इत्यादि प्रमुख थे । जो लोग आज भी रामचरित मानस और हनुमान चालीसा गा लेते हैं, उसकी वजह ये छंद ही हैं, जिन्होंने इनको अमर कर दिया | फिर धीरे धीरे, लोगो के लिए हिंदी के छंदों के नियम भी दुष्कर हो गए और वो बिना नियमो के ही कवित्त करने लगे और फिर नए नए तरह की विधाएं, कविता में समाज में आई, जिनके ऊपर मात्राओं की, वर्णों की कोई बंदिश नहीं थी जैसे मुक्तक | किन्तु वेदों में जो छंद प्रयुक्त हुए, उनमें अक्षरों की मात्राओं और वर्णों की संख्या के आधार पर नियम थे जैसे वृहती छंद, गायत्री छंद, अनुष्टुप छंद इत्यादि |"
(१*) - हरिऔध् ग्रंथावली, खंड : 6, भाषा की परिभाषा
“ये मात्राएँ वहीँ होती हैं, जो हम अक्षरों पर लगाते हैं ? उनकी भी गिनती या संख्या निश्चित कर दी जाती है ?” -
“हाँ ! मात्राओं तक की संख्या और कब कहाँ, लगानी है ये निश्चित था | हम हिंदी में ऐसा वाक्य नहीं लिख सकते, जिसमें मात्राएँ फिक्स कर दी जाएँ लेकिन सोचो लोग काव्य लिखा करते थे, स्तुतियाँ लिखा करते थे और इन नियमों को फॉलो भी करते थे | दूसरे शब्दों में कहूं तो यदि गद्य की कसौटी ‘व्याकरण’ है तो कविता की कसौटी ‘छन्दशास्त्र’ है। “छन्दस् शब्द 'छद' धातु से बना है। इस शब्द के मूल में गति का भाव है। जब आप मात्राओं और शब्दों के एक ख़ास मेल को बनाओगे तो वो एक sync में चलेगा | जैसे मिलिट्री में सेना को पता होता है कि परेड में हाथ कितना ऊंचा ले जाना है और पैर कितना आगे बढ़ाना है, ठीक वैसे ही छंद में काव्य को गति प्रदान की जाती है |” -
| छंद के मुख्यतः ६ भाग होते हैं - १. चरण या पाद २. वर्ण और मात्रा 3. यति ४. गति ५. तुक ६ गण
पहला जो चरण या पाद है, ये किसी भी छंद का चौथाई हिस्सा होता है सो अगर चौथाई हिस्सा है तो १ छंद में कुल चार हिस्से होंगे | हरेक चरण में वर्ण या मात्राओं की संख्या निर्धारित होती है | दूसरा और चौथा चरण क्योंकि सम संख्या हैं सो हुए सम चरण और पहले और तीसरे चरण, क्योंकि विषम संख्या है सो हुए विषम चरण |
दूसरा हिस्सा है वर्ण और मात्रा | वर्ण यानि अक्षर, सो नियत अक्षरों की संख्या से चरण बनता है | ऐसे ही मात्रा की संख्या के नियत होने से भी चरण बनता है | मात्रा यानि एक वर्ण को बोलने में जो समय लगता है, उसे कहते हैं - मात्रा | समय या तो ज्यादा लगेगा या कम सो यदि ज्यादा समय लगेगा तो बोलते हैं दीर्घ और यदि कम समय लगता है तो बोलते हैं ह्रस्व | सो दीर्घ उच्चारण वाले वर्णों की मात्र हुई गुरु और ह्रस्व उच्चारण वाले वर्णों की मात्रा हुई लघु | जो बड़ी मात्राएँ हैं, वो सब गुरु मात्राएँ हैं क्योंकि उनको बोलने में समय लगता है और जो छोटी मात्राएँ हैं या जिन पर कोई मात्रा नहीं होती, वो सब लघु मात्राएँ हैं क्योंकि उनको बोलने में कम समय लगता है |
तीसरा हिस्सा है यति अर्थात विश्राम | जहाँ पर छंद में थोडा ब्रेक लगाना होता है, विश्राम लेना होता है उसे यति कहते हैं जिसे (,) से या (|) से या (||) से दिखाया जाता है |
चौथा हिस्सा है गति मतलब कि मात्राओं और वर्णों के हिसाब से जिस गति में छंद को पढ़ा जाता है या जिस लय में उसे पढ़ा जाता है उसे गति कहते हैं |
पांचवा हिस्सा है तुक यानि एक जैसे उच्चारण वाले शब्द | जैसी कविता बच्चे करते हैं - मैं देश के लिए कुछ कर जाऊँगा, जरूरत पड़ी तो मर जाऊँगा | अब यहाँ अंत में तुकांत शब्द है, एक जैसे उच्चारण वाले |
आखिरी हिस्सा होता है वर्ण | जो वार्णिक छंद होते हैं, उनमें ग्रुपिंग की जाती है | तीन वर्णों के ग्रुप को एक गण कहा जाता है | कुल मिला कर ८ प्रकार के गण होते हैं | यगण, मगण (मा), तगण (ता), रगण (रा), जगण (ज), भगण (भा), नगण (न), सगण (स) |
गण चिह्न उदाहरण
यगण (य) ।ऽऽ नहाना (आदि लघु)
मगण (मा) ऽऽऽ आजादी (सर्वगुरु)
तगण (ता) ऽऽ। चालाक (अन्तलघु)
रगण (रा) ऽ।ऽ पालना (मध्यलघु)
जगण (ज) ।ऽ। करील (मध्यगुरु)
भगण (भा) ऽ।। बादल (आदिगुरु)
नगण (न) ।।। कमल (सर्वलघु)
सगण (स) ।।ऽ कमला (अन्तगुरु)
इन आठो हिस्सों से बनता है छंद | कुछ उदाहरण पहले लौकिक छंदों के, जैसे कि दोहा -
दोहा मात्रिक छंद है अर्थात इसमें मात्राओं की गणना की जाती है। दोहे के पहले एवं तीसरे चरण में १३ मात्राएँ जबकि दूसरे और चौथे चरण में ११ मात्राएँ होती हैं। चरणान्त में यति होती है। विषम चरणों के अंत में ‘जगण’ नहीं आना चाहिए। सम चरणों में तुक होती है, तथा सम चरणों के अंत में लघु वर्ण होना चाहिए।
S I I I I I I S I I I I I I I I I I I S I
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।
बरनउं रघुवर विमल जस, जो दायक फल चारि ।।
I I I I I I I I I I I I I S S I I I I S I (१*)
अब S (गुरु मात्रा) को गिनो २ और | (लघु मात्रा) को गिनो १ तो पहले चरण में मिलेंगी १३ मात्राएँ और दुसरे चरण में ११ मात्राएँ | इस प्रकार दोहा छंद बन गया |”
“लेकिन मान लो लिखने वाले को ऐसे शब्द याद नहीं आ रहे, जिनमें मात्रा इस प्रकार हों, तो ?” - मैं जानना चाह रहा था कि इस प्रकार मात्राओं में बांध कर काव्य कैसे लिखा जा सकता है |
“अगर ऐसा शब्द नहीं मिल रहा, जिस से मात्राएँ पूरी हो पा रही हों तो कवि को अपनी कलम उठा कर रख देनी चाहिए | कोई फूफ्फा जी थोड़े कह कर मर गए हैं कि कुछ लिखो ही | जब शब्द मिल जाए, तब आगे बढे | शब्दों को पढना पड़ता है, गढ़ना पड़ता है, उकेरना पड़ता है, मथना पड़ता है, इतना आसान थोड़े ही है कि कुछ भी लिख दिया जाए।''
इन्हीं नियमों से काफी बडे बडे छन्दों का निर्माण होता है जिनको सँगीतबद्ध करके आनँदपूर्वक गाया जाता है।
“शिव तांडव स्तोत्र पञ्चचामर छंद में लिखा गया है | इस छंद की ये विशेषता होती है कि इसमें १६ अक्षर होते हैं और उनका क्रम लघु-गुरु, लघु-गुरु, लघु-गुरु इस रूप में होता है | यही क्रम शिव तांडव स्तोत्र में है | गौर करो -
जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले, गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्।
सँस्कृत का अद्भुत छँद पँचचामर, जिसमें एक वर्ण लघु दूसरा गुरू,,, इस वर्णक्रम मे हिँदी कविताएं भी बहुत रची गई हालांकि मेरा लेख अँग्रेजी मे ट्राँसलेट होगा तो आगे की कविता पढना कुछ कठिन हो सकता है यथा हिँदी मे ही इसका स्वरूप यथावत रखा जा सकता है।
अतीत से समाज की विडम्बना समान है।
‘लकीर के फ़क़ीर’ विश्व का यही विधान है।।
अबाध वेग से यही प्रभायमान हो रहा।
समाज के लिये मरे, वही मनुष्य रो रहा।१।
चलो कि ये विधान मोड़ के रचें नवीनता।
चलो कि आज छीन लायँ वक़्त से मलीनता।।
समस्त दिग्दिगांत झूम जायँ वो प्रयास हो।
अखण्ड मानवाधिकार तत्व का विकास हो ।२।(१*)
जय शंकर प्रसाद ने लिखा -
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो ॥ (२*)
तत्कालीन कविताओं की रचना इन छँदो पर आधारित रही तदर्थ उसमें एक विशेष आनँद और रस की व्यँजना थी जिसके रसिक भी काफी बडी सँख्या मे विद्यमान थे। इसी प्रकार और भी बहुत प्रकार के छंद होते है |
छंदों को मुख्यतः चार भागों में बांटा जा सकता है -
१. मात्रिक छंद
२. वार्णिक छंद
3. वर्ण वृत्त
४. मुक्त छंद
मात्रिक छंद में मात्राओं की संख्यां निश्चित होती है जैसे दोहा, सोरठा, चौपाई इत्यादि | ऐसे ही वार्णिक छंद में वर्णों की संख्या निर्धारित रहती है जैसे धनाक्षरी, दण्डक आदि | वर्णवृत्त को समछंद भी कहते हैं, इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है जैसे द्रुताविलाम्बित, मालिनी आदि और आखिरी मुक्त छंद, भक्ति काल तक मुक्त छंद का अस्तित्व नहीं था | यह आधुनिक युग की देन है और इसके प्रणेता थे, सूर्य कान्त त्रिपाठी “निराला” | मुक्त छंद में कोई नियम नहीं होता था, केवल भावपूर्ण गति, यानि स्वच्छंद गति (छंद का अर्थ ही है गति, स्वच्छन्द मतलब जो अपनी गति से बहता हो, जिसमें कोई नियम कायदे न हों, ऐसा छंद) ही इसकी पहचान है |
अब मैं कुछ प्रसिद्द छंदों के नाम बताता हूँ, जैसे गायत्री छंद - इसमें ८-८ वर्णों के 3 चरण होते हैं और कुल २४ अक्षर होते हैं |”गायत्रीमँत्र जो विश्व का सबसे शक्तिशाली मँत्र है यहां उसकी स्मृति सहज आती है क्योंकि उसमें भी 24 अक्षर है परँतु उसमें निचृतगायत्री छँद है।
“हरेक छंद का कोई न कोई ऋषि, देवता इत्यादि होता है, जैसे कि आप्दुद्धारण बटुक भैरव स्तोत्र के ऋषि बृहदारण्यक और देवता श्री भैरव जी हैं | होने को तो छंदों के स्वर (षडज {स}, ऋषभ {रे}, गांधार {ग}, मध्यम {म},पंचम {प}, धैवत {ध} और निषाद {नि}), गोत्र (अग्निवेश्य, कश्यप, गौतम, अंगिरा, भार्गव, कौशिक और वसिष्ठ) और वर्ण (श्वेत, सारंग, पिंगल, कृष्ण, नील, लोहित और गौर) भी होते हैं ।
कृष्ण जी, भगवद गीता में कहते हैं -
गायत्री छन्दसामहम् । (3*)
(१*) - अज्ञात
(२*) - प्रसाद, रत्नशंकर “खण्ड 2”, प्रसाद ग्रंथावली ॥प्रसाद वांङमय॥, 1985
(3*) - भगवद्गीता - १०.३५
“ इस प्रकार अनेकों छंद हुआ करते थे | बहुत से नियम हुआ करते थे | लोग छंदों की रचना किया करते थे और कोई कोई, एक नया नियम बनाता था और उसके अनुसार रचना करता था, जैसे शार्दुलविकीलित छंद - ऐसा काव्य जिसको पढ़ते में ऐसा लगे, जैसे शेर छलांग लगा रहा हो | या फिर भुजंग छंद, ऐसा काव्य जिसमें ऐसा लगे जैसे सांप बहुत तेजी से इधर उधर जा रहा हो | या फिर स्रग्धरा छंद, जिसको शब्दों से ऐसे सजाया जाता था, जैसे मुंह में ध्वनियों के गुंजलक (जाल) हैं, जो बाढ़ की तरह से बाहर आना चाहते हों | इस प्रकार अनेकों प्रकार के छंद हुआ करते थे |”
“छंद तो बहुत होते हैं| जगती छंद में १२ अक्षरों के ४ चरण होते थे और कुल ४८ अक्षर होते थे | त्रिष्टुप में ११ अक्षर के ४ चरण होते थे और कुल ४४ अक्षर होते थे | उष्णिक छंद में ७ अक्षरों के ४ चरण होते है | प्रस्तार पंक्ति छंद में दो चरण १२ के और बाकी दो चरण ८ अक्षरों के होते हैं | सतपंक्ति में पहला और तीसरा १२ अक्षरों का और बाकी २ चरण ८ अक्षरों के होते हैं | विस्तार पंक्ति में पहला और चौथा ८ अक्षरों के और बाकी दोनो १२ अक्षरों के होते हैं | अक्षरपंक्ति में 5-5 अक्षरों के ४ पाद होते थे | इस प्रकार अनेकों अन्य छंद हुआ करते थे जिनका वर्णन सँस्कृत काव्यों मे मिलता है।
आठ गणों का निर्धारण क्रम किसी डिजिटल साइँस से कम नहीं।यथा
गण चिह्न उदाहरण बाईनरी सिस्टम
यगण (य) ।ऽऽ नहाना (आदि लघु) 011
मगण (मा) ऽऽऽ आजादी (सर्वगुरु) 111
तगण (ता) ऽऽ। चालाक (अन्तलघु) 110
रगण (रा) ऽ।ऽ पालना (मध्यलघु) 101
जगण (ज) ।ऽ। करील (मध्यगुरु) 010
भगण (भा) ऽ।। बादल (आदिगुरु) 100
नगण (न) ।।। कमल (सर्वलघु) 000
सगण (स) ।।ऽ कमला (अन्तगुरु) 001
ये बिल्कुल किसी बाईनरी सिस्टम की तरह है
“ आजकल जो कंप्यूटर की भाषा होती है वो इसी बाईनरी सिस्टम में होती है | 0 और 1 से ही कंप्यूटर सब समझता है | जो भी इनपुट तुम कंप्यूटर में डालते हो, कंप्यूटर को नहीं पता कि तुम क्या डाल रहे हो, या क्या टाइप कर रहे हो | वो तो बस इस बाइनरी सिस्टम को फॉलो करता है क्योंकि तुम्हारे हरेक इनपुट के लिए एक बाइनरी नंबर पूर्वनिर्धारित किया हुआ होता है |”
“इतना ही नहीं, छंदों में तो ज्यामितीय भी हुआ करती थी | जैसे वर्णवृत्त छंद बताया जिसे समछंद भी कहते हैं, इसमें चारों चरण समान होते हैं और प्रत्येक चरण में आने वाले लघु गुरु मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है जैसे दृताविलाम्बित, मालिनी | ये वास्तव में क्या है ? इसमें वृत्त शब्द ही क्यों प्रयुक्त किया गया ? क्योंकि जब हवन की वेदी बनाते हैं तो उसको एक वर्ग में बनाते हैं और जब उस वर्ग के चारों कोनो को मिला देते हैं तो जो वृत्त बनता है, उसे वर्गवृत्त कहा जाता है | इसी प्रकार, जब उस वेदी के वर्ग की भुजाओं को देखोगे तो हमको समछंद याद आएगा, क्योंकि इसके भी चारों चरण समान हुआ करते हैं।पिछले कुछ दशकों से ये ज्ञान लुप्त सा हो रहा है जो चिँता का विषय है ,मानव मस्तिष्क इन छँदो से आप्लावित हो सँगीतमय हो देवताओं की आराधना करते थे।वास्तव मे ये विषय सँज्ञान मे लाया जाने योग्य है।
संदर्भ - अग्नि पुराण।
🌹🌷 निरँजनप्रसादपारीक🌹🌷
🌹🌹वेदिका🌹🌹
बहोत ही सुंदर
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण
साधुवाद
आपके ईश लेख को मेरे पेज पर पोस्ट करने की आज्ञा दीजिये... बन्धुवर
Ji bilkul,,,aap es link ko post kre
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
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