शिवताँडव का रहस्य
शिव आदि काल से ही गुरु माने जाते हैं | उनकी चर्चा हो और ताण्डव नृत्य की बात ना हो ऐसा नहीं हो सकता | आम तौर पर तांडव का अर्थ विध्वंस के रूप में ही लिया जाता है | नृत्य की दृष्टि से देखें तो उग्र स्वभाव को दर्शाता हुआ रूद्र तांडव है | वहीँ इसका एक और कोमल रूप, आनंद तांडव कहलाता है | शैव सिद्धांतो के मत में जहाँ शिव को नटराज यानि नृत्य के राजा माना जाता है, वहां तांडव का नाम “तण्डु” नाम से आया हुआ मानते हैं |
मान्यता है कि नाट्य शास्त्र के रचियेता भरत मुनि को #अंगहार और 108 कारणों की शिक्षा तण्डु ने शिव के आदेश पर दी थी | शैव मतों की कई मान्यताएं, नृत्य की मुद्राओं से मिलती जुलती भी हैं | हवाई के कौअई में मौजूद कदवुल मंदिर में नटराज के 108 कारणों की मूर्तियाँ हैं | ठीक ऐसा ही भारत के चिदंबरम मंदिर में भी देखा जा सकता है | वहां भी करीब 12 इंच ऊँची मूर्तियों में सभी 108 #कारणों को दर्शाया गया है | मान्यता ये भी है कि चिदंबरम मंदिर ही वो स्थान है जहाँ नटराज भक्तों के आग्रह पर, पार्वती के साथ, आनंद #तांडव करने आये थे |
भरत के #नाट्यशास्त्र के चौथे अध्याय का नाम “ताण्डव लक्षणम्” है | सभी 32 अंगहार और 108 कारणों की चर्चा इसी अध्याय में है | हाथों और पैरों की विशिष्ट मुद्राओं को कारण कहते हैं | सात या उस से अधिक कारण मिलकर एक अंगराग बनते हैं | कारणों का प्रयोग नृत्य के साथ साथ सम्मुख युद्ध में और द्वन्द युद्ध में भी किया जा सकता है |
ताण्डव पांच मुख्य उर्जाओं की अभिव्यक्ति है | इस से सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह के भावों की अभिव्यक्ति होती है | जहाँ सृष्टि, स्थिति, और संहार विश्व के निर्माण और विध्वंस के द्योतक हैं वहीँ, तिरोभाव और अनुग्रह वो भाव हैं जिनसे जन्म और मृत्यु संचालित होती है |
हिन्दुओं के ग्रन्थ सात मुख्य प्रकार के ताण्डवों का जिक्र करते हैं | आनन्द तांडव, त्रिपुर ताण्डव, संध्या ताण्डव, संहार ताण्डव, कालिका ताण्डव, उमा ताण्डव और गौरी तांडव मुख्य प्रकार हैं | आनंद कुमारस्वामी जैसे कुछ विद्वान सोलह प्रकार के ताण्डवों का जिक्र करते हुए कहते हैं, शिव के कितने तांडवों का उनके भक्तों को पता है इसके बारे में निश्चय करना कठिन है |
शिव के ताण्डव का प्रत्युत्तर पार्वती लास्य से देती हैं | पार्वती के नृत्य को सौम्य, भावपूर्ण और कई मुद्राओं में कामोद्दीपक भी माना जा सकता है | लास्य के दो मुख्य प्रकार, जरित लास्य और यौविक लास्य अभी भी आसानी से देखने को मिलते हैं | #ताण्डव का जिक्र कई धर्म ग्रंथों में भी है | सती के अपने पिता दक्ष के यज्ञ कुण्ड में कूद जाने पर शिव संताप और क्रोध में रूद्र ताण्डव करते हैं | शिवप्रदोषस्तोत्र के अनुसार जब शिव संध्या ताण्डव करते हैं तो ब्रह्मा, विष्णु, सरस्वती, लक्ष्मी, और इंद्र आदि देवता वाद्य यंत्र बजा रहे होते हैं |
ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ शिव के तांडव का ही जिक्र आता हो | भगवान् गणेश भी कई मूर्तियों में अष्टभुज, ताण्डव मुद्राओं में दिखते हैं | भागवत पुराण में जब कृष्ण कालिया नाग का दमन करते हैं तो वो उसके फन पर ताण्डव कर रहे होते हैं | ज्यादातर कालिया दमन की पेंटिग और मूर्तियों में आपने यही ताण्डव मुद्रा देखि होगी | यहाँ तक की जैन मान्यताओं में माना जाता है कि इन्द्र ने भी ऋषभ देव के जन्म पर ख़ुशी दर्शाने के लिए ताण्डव नृत्य किया था | स्कन्द पुराण में भी ताण्डव का जिक्र आता है |
शिव के ताण्डव पर आनंद कुमारस्वामी ने एक विस्तृत किताब The Dance of Shiva: Fourteen Indian Essays, के एक अध्याय "The Dance of Shiva" में विस्तार से लिखा है |
#महाशिवरात्रि भगवान् शिव के ताण्डव और उसके विभिन्न रूपों को याद करने के लिए भी मनाया जाता है |
#कागा_सब_तन_खाइयो
( जानकारी और तस्वीर इन्टरनेट पर मुफ्त उपलब्ध है | )
शिव नटराज भी कहे जाते हैं | कहते हैं कि एक बार शिव नृत्य करने लगे तो साथ ही पार्वती भी नृत्य में उनका साथ देने लगीं | समस्या ये हुई की हर ताल पर पार्वती का नृत्य बेहतर होता और शिव हार जाते !
शिव के नृत्य का नाम ज्यादातर लोगों को पता ही है | देवाधिदेव का नृत्य जहाँ तांडव कहलाता है, वहीँ उसका प्रतिरूप जैसा पार्वती का नृत्य लास्य कहा जाता है | देवी के रुकने तक शिव जीत नहीं पाए थे |
अगर कभी, कहीं, किसी जगह, किसी के बोलना बंद ना करने के कारण आप नहीं जीत पाते तो ज्यादा अफ़सोस मत कीजिये | #महाशिवरात्रि ये भी याद दिला देती है कि वामांगी के रुकने से पहले तक, अर्धनारीश्वर भी नहीं जीत पाए थे |
अगर आप राष्ट्रवादियों की बहस देख रहे हैं तो एक बार रामेश्वरम याद कीजिये | प्रभु रामेश्वरम् के ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्री राम ने रामसेतु बनाने से पहले की थी | जब महावीर हनुमान ने उनके द्वारा दिए गए शिव लिंग के इस नाम का मतलब पूछा तो भगवान् राम ने शिव जी के नवीन स्थापित ज्योतिर्लिंग के स्वयं द्वारा दिए इस नाम की व्याख्या में कहा-
रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर: ||
मतलब जो श्री राम के ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं |
बाद में जब रामसेतु बनने की कहानी भगवान् शिव, माता सती को सुनाने लगे तो बोले के प्रभु श्री राम ने बड़ी चतुराई से रामेश्वरम नाम की व्याख्या ही बदल दी | माता सती ने पुछा, ऐसा कैसे ? तो देवाधिदेव महादेव ने रामेश्वरम नाम की व्याख्या करते हुए उच्चारण में थोड़ा सा फ़र्क बताया-
राम ईश्वरो यस्य सः रामेश्वरः ||
यानि श्री राम जिसके ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं |
अगर आप अब्राहमीक रिलिजन के चश्मे से देखेंगे तो ये कहानी जरा अजीब सी लग सकती है | इसे एक भारतीय की नजर से देखिये | आप अगर आस पास के किसी भगवान राम के मंदिर में जाकर बैठें और अपने मोबाइल फोन में वहां शिव तांडव का ऑडियो बजा दें तो क्या होगा ? क्या कोई टोकेगा कि राम के मंदिर में शिव की महिमा क्यों बजा रहे हो ? नहीं, उल्टा हो सकता है दो चार और लोग सुनने के लिए, हाथ जोड़े, पांच मिनट रुक जाएँ |
अब्राहमिक रिलिजन के चश्मे से ये अजीब होता है, क्योंकि वहां एक इश्वर का भाव होता है | विदेशियों को ये अजीब लगेगी, लेकिन भगवान राम को पूज्य मानने के साथ साथ शिव की महिमा सुनना, वो भी उस शिव तांडव में जो कि राम के शत्रु रावण की रचना है, बिलकुल नार्मल बात है | हमारे लिए एक का समर्थक होने का मतलब दुसरे का विरोधी हो जाना नहीं होता है |
ये कहानी वर्चुअल वर्ल्ड यानि आभासी दुनिया की बहसों में भी याद रखिये | यहाँ अगर आप दो घनघोर किस्म के राईट विंग, अर्थात हिन्दुत्ववादी महानुभावों को किसी मुद्दे पर धुर विरोधी भी देखते हैं तो गलतफहमी बिलकुल मत पाल लीजिये | अलग अलग शहरों में बैठे ये लोग शायद रोज़ ही एक दुसरे से फ़ोन पर बात करते हैं | कमेंट में किसी मुद्दे पर बात के साथ इनबॉक्स में कोई और चर्चा चल रही होगी | राम-रावण जैसे विपरीत धुरी पर दिखते हुए भी ये शिव के मुद्दे पर फिर एक होंगे |
बाकी थोड़ी छेड़-छाड़ से अब्राहमिक, बदल कर अब्रह्मिक, यानि ब्रम्ह के आभाव से ग्रस्त हो जाता है | अन्दर के तत्व को अनदेखा करके. बाहर के खोल पर ध्यान मत टिकाइए |
पशु पक्षियों जैसा ही, मनुष्यों के पास भी शुरुआत में सिर्फ बोली थी, कोई भाषा नहीं थी। धीरे धीरे सभ्यता के विकास के साथ शब्दों के स्वरुप तय हुए, व्याकरण तैयार हुआ और अलग अलग सभ्यताओं के लिए अलग अलग भाषाएँ बनी। अभी के भारत की संस्कृति ही देख लें तो कई भाषाओँ के साथ साथ कई बोलियाँ भी मिल जायेंगी। जैसे ये भाषा के साथ होता है, वैसे ही ये संगीत के लिए भी होता है। एक सरगम और संगीत के एक प्रारूप के तय होने के साथ ही लोकगीतों से अलग, भारतीय शास्त्रीय संगीत का उदय हुआ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का भी भेद होता है, राग कम हैं और रागिनियाँ अधिक। रागों के लिए भाव भी होते हैं, परिवार भारत में महत्वपूर्ण इकाई है, इसलिए हर राग का परिवार भी होता है। धर्म से भारतीय संस्कृति के जुड़े होने के कारण हर राग, नटनागर यानि भगवान शिव से भी जुड़ा है। पांच राग भगवन शिव के पांच मुख से निकले बताये जाते हैं। सुबह की शुरुआत का राग भैरव (भूमि तत्व), हिंडोल (आकाश तत्व), दीपक (अग्नि तत्व), श्री (वायु तत्व) और मेघ (जल तत्व) शिव के हैं और छठा मालकौंस राग पार्वती का है।
उन्नीसवीं सदी के शुरुआत तक यही राग-रागिनी पद्दति भारतीय शास्त्रीय संगीत के वर्गीकरण के लिए इस्तेमाल होती थी। ऐसे चार मत होते थे, जिनमें से ये भरत मत के रागों के नाम हैं। भरत मत में हरेक राग की पांच पांच रागिनियाँ, आठ पुत्र राग और आठ वधु मानी जाती थी। हनुमत मत में भी रागों के नाम यही थे। रागिनियों, पुत्र रागों इत्यादि की गिनती बदलती थी। शिव मत के अनुसार भी छः राग माने जाते थे। प्रत्येक की छः-छः रागिनियाँ तथा आठ पुत्र मानते थे। इस मत में राग भैरव, राग श्री, राग मेघ, राग बसंत, राग पंचम, और राग नट नारायण होते थे।
सन 1810-20 के बीच इस पद्दति की आलोचना शुरू हुई और सुधार की जरूरत महसूस की जाने लगी। ये काम पचास साल बाद शुरू होना था। पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का जन्म ही 1860 में हुआ (देहावसान-1936)। अधिकांश उत्तर भारत में जो आधुनिक थाट पद्दति आज जानी जाती है, उसके जन्मदाता पंडित भातखंडे थे। उन्होंने 1640 के आस पास के कर्णाटक शैली के विद्वान पंडित वेंकटमखिन की शैली के आधार पर वर्गीकरण का प्रयास शुरू किया। इस काम के लिए वो उत्तर भारत के कई शास्त्रीय घरानों में घुमते रहे।
बरसों की मेहनत से वो दस प्रमुख थाट में भारतीय शास्त्रीय संगीत को बाँट पाए। बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी, आसावारी, भैरवी और तोडी थाट में आज संगीत बांटा जा सकता है। जैसे मालकौंस को भैरवी थाट में डाल सकते हैं, राग श्री को पूर्वी थाट में डालेंगे। थाट को परिवार के उपनाम की तरह समझिये। जैसे किसी के घर शादी का कार्ड देने आया कोई व्यक्ति पारिवारिक उपनाम से फलां परिवार को सादर आमंत्रण लिखकर छोड़ सकता है। उस आमंत्रण के उपनाम से कई लोग पहचाने जाते हैं इसलिए परिवार के कई लोगों में से एक या कुछ व्यक्ति चले जायेंगे।
थाट का बनना गणित पर आधारित है। सरगम के सात स्वरों में से पांच को विकृति दी जा सकती है, यानि कोमल और तीव्र स्वर भी होते हैं। इस तरह कुल सात शुद्ध स्वर और पांच विकृत, बारह स्वर होते हैं। अब अगर पर्मुटेशन-कॉम्बिनेशन इस्तेमाल करें और सा, पा को केवल शुद्ध स्वर, और रे, गा, म, धा, और नी का एक (कोमल या तीव्र) रूप इस्तेमाल करें तो कुल 32 स्वरुप बनेंगे। अपनी तलाश में पंडित भातखंडे को जो दस थाट प्रबल दिखे, उन्होंने उसमें ही सबको बांटा।
ये जो ज्यादातर थाट हैं, इनसे मिलते जुलते से पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत के चर्च मॉड भी मिल जाते हैं। एक अंतर ये कहा जा सकता है कि हाई ऑक्टेव पिच के लिए चर्च बच्चों का बंध्याकरण करके उनसे गवाता था। ऐसे एक गाने लायक किन्नर बच्चे के बंध्याकरण में कई बच्चों की मौत भी हो जाती थी। बाद में ये वहशी हरकत ख़त्म हुई तो ऑपेरा के कई हिस्से ही दोबारा तैयार करने पड़े। जो पुरानी पद्दति थी उसे गाने लायक बचपन से बंध्याकरण करके बच्चों को आज तैयार नहीं किया जा सकता। खुशकिस्मती से भारतीय परम्पराओं में ऐसी अमानवीयता नहीं होती, इसलिए रागों को गायब नहीं करना पड़ा।
ये जरूर है कि एक ही व्यक्ति का इतने वृहदाकार संगीत शास्त्र पर काम पूर्ण हो, ऐसा थोड़ा कठिन है। इस वजह से पंडित भातखंडे का वर्गीकरण भी पूरा नहीं माना जाता। दस थाटों में उनके वर्गीकरण पर आगे क्या प्रयास हुए, उन प्रयासों को कितनी सफलता मिली ये भी बहस का मुद्दा हो जाता है। अब आप अगर यहाँ तक पढ़ चुके हैं तो देखिये कि जो बात संगीत पर होनी थी वो धर्म से शुरू होकर गणित तक पहुँच गई। इतने पे भी स्थिति ये है कि हम ये बताने की कोशिश करें कि राग हिंडोल मारवा थाट का है, या कल्याण थाट का, तो एक बड़ी बहस खड़ी हो सकती है।
तो आप ये भी समझ सकते हैं कि माला की तरह, धर्म से होते हुए, संगीत को जोड़ते जो गणित तक पहुंचा है, वो सबको जोड़ता धागा ही संस्कृति है। हरेक हिस्से की अपनी महत्ता है, साथ आये तो और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
किसी व्यक्ति, वस्तु या भाव के होने या ना होने की बात करते समय हमरा मतलब क्या होता है? किसी चीज़ का Existance या Non-existance हम कैसे तय करते हैं? हम उसे आयामों यानी Dimensions में देखते हैं। आम तौर पर तीन आयाम: लम्बाई, चौड़ाई और उंचाई में।
लेकिन इतने भर से उसका होना तय नहीं होता। वो कितने समय के लिए था ये भी तय होना चाहिए। कोई भी चीज़ कितने Length, breadth, height की थी, इसके अलावा वो कितने time exist कर रही थी ये बताये बिना उसका होना सिद्ध नहीं होता।
कोई वस्तु इतने मीटर लम्बी, इतनी चौड़ी, इतनी ऊँची थी कह भर देने से उसका होना तय नहीं होता। वो कितने समय के लिए दुनियां में थी वो भी उसका होना तय करती है। भाव या विचार जैसी Intangible चीज़ों के लिए लम्बाई-चौड़ाई जैसी चीज़ें होती ही नहीं इसलिए उनके होने के लिए समय का होना और भी जरूरी है।
अगर समय होगा तो क्रम भी होगा। जैसे पहली, दूसरी, या पांचवी सीढ़ी पार किये बिना आप दसवीं पर नहीं पहुँचते। या लिखने का काम कर लूं फिर कागज़-कलम लाता हूँ, ये नहीं किया जा सकता। कागज़ और कलम यानि लिखने की जरूरी चीज़ें पहले क्रम में आएँगी लिखना उसके बाद ही होगा।
समय होना मतलब क्रम में सबको बांधना, ये जितना विज्ञान का विषय होता है उतना ही हिन्दुओं के #अद्वैत दर्शन का भी होता है। आचार्य वसुगुप्त को स्वप्न के जरिये ऐसे ही सिद्धांतों के “शिव सूत्र” की जानकारी मिली जो उन्होंने कश्मीर जाकर एक शिला पर उकेरे हुए ढूंढ लिए।
शिव सूत्र संख्या में सतहत्तर हैं और उनकी व्याख्या के लिए आचार्य वसुगुप्त ने “स्पंद कारिका” की रचना की। स्पंद कारिका शिव को समय से परे अर्थात अक्रम घोषित करती है। वो समय से बंधे नहीं इसलिए पहले और बाद में का बंधन भी उनपर लागू नही होता।
✍निरँजनप्रसाद पारीक
🌷वेदिका🌷
मान्यता है कि नाट्य शास्त्र के रचियेता भरत मुनि को #अंगहार और 108 कारणों की शिक्षा तण्डु ने शिव के आदेश पर दी थी | शैव मतों की कई मान्यताएं, नृत्य की मुद्राओं से मिलती जुलती भी हैं | हवाई के कौअई में मौजूद कदवुल मंदिर में नटराज के 108 कारणों की मूर्तियाँ हैं | ठीक ऐसा ही भारत के चिदंबरम मंदिर में भी देखा जा सकता है | वहां भी करीब 12 इंच ऊँची मूर्तियों में सभी 108 #कारणों को दर्शाया गया है | मान्यता ये भी है कि चिदंबरम मंदिर ही वो स्थान है जहाँ नटराज भक्तों के आग्रह पर, पार्वती के साथ, आनंद #तांडव करने आये थे |
भरत के #नाट्यशास्त्र के चौथे अध्याय का नाम “ताण्डव लक्षणम्” है | सभी 32 अंगहार और 108 कारणों की चर्चा इसी अध्याय में है | हाथों और पैरों की विशिष्ट मुद्राओं को कारण कहते हैं | सात या उस से अधिक कारण मिलकर एक अंगराग बनते हैं | कारणों का प्रयोग नृत्य के साथ साथ सम्मुख युद्ध में और द्वन्द युद्ध में भी किया जा सकता है |
ताण्डव पांच मुख्य उर्जाओं की अभिव्यक्ति है | इस से सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह के भावों की अभिव्यक्ति होती है | जहाँ सृष्टि, स्थिति, और संहार विश्व के निर्माण और विध्वंस के द्योतक हैं वहीँ, तिरोभाव और अनुग्रह वो भाव हैं जिनसे जन्म और मृत्यु संचालित होती है |
हिन्दुओं के ग्रन्थ सात मुख्य प्रकार के ताण्डवों का जिक्र करते हैं | आनन्द तांडव, त्रिपुर ताण्डव, संध्या ताण्डव, संहार ताण्डव, कालिका ताण्डव, उमा ताण्डव और गौरी तांडव मुख्य प्रकार हैं | आनंद कुमारस्वामी जैसे कुछ विद्वान सोलह प्रकार के ताण्डवों का जिक्र करते हुए कहते हैं, शिव के कितने तांडवों का उनके भक्तों को पता है इसके बारे में निश्चय करना कठिन है |
शिव के ताण्डव का प्रत्युत्तर पार्वती लास्य से देती हैं | पार्वती के नृत्य को सौम्य, भावपूर्ण और कई मुद्राओं में कामोद्दीपक भी माना जा सकता है | लास्य के दो मुख्य प्रकार, जरित लास्य और यौविक लास्य अभी भी आसानी से देखने को मिलते हैं | #ताण्डव का जिक्र कई धर्म ग्रंथों में भी है | सती के अपने पिता दक्ष के यज्ञ कुण्ड में कूद जाने पर शिव संताप और क्रोध में रूद्र ताण्डव करते हैं | शिवप्रदोषस्तोत्र के अनुसार जब शिव संध्या ताण्डव करते हैं तो ब्रह्मा, विष्णु, सरस्वती, लक्ष्मी, और इंद्र आदि देवता वाद्य यंत्र बजा रहे होते हैं |
ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ शिव के तांडव का ही जिक्र आता हो | भगवान् गणेश भी कई मूर्तियों में अष्टभुज, ताण्डव मुद्राओं में दिखते हैं | भागवत पुराण में जब कृष्ण कालिया नाग का दमन करते हैं तो वो उसके फन पर ताण्डव कर रहे होते हैं | ज्यादातर कालिया दमन की पेंटिग और मूर्तियों में आपने यही ताण्डव मुद्रा देखि होगी | यहाँ तक की जैन मान्यताओं में माना जाता है कि इन्द्र ने भी ऋषभ देव के जन्म पर ख़ुशी दर्शाने के लिए ताण्डव नृत्य किया था | स्कन्द पुराण में भी ताण्डव का जिक्र आता है |
शिव के ताण्डव पर आनंद कुमारस्वामी ने एक विस्तृत किताब The Dance of Shiva: Fourteen Indian Essays, के एक अध्याय "The Dance of Shiva" में विस्तार से लिखा है |
#महाशिवरात्रि भगवान् शिव के ताण्डव और उसके विभिन्न रूपों को याद करने के लिए भी मनाया जाता है |
#कागा_सब_तन_खाइयो
( जानकारी और तस्वीर इन्टरनेट पर मुफ्त उपलब्ध है | )
शिव नटराज भी कहे जाते हैं | कहते हैं कि एक बार शिव नृत्य करने लगे तो साथ ही पार्वती भी नृत्य में उनका साथ देने लगीं | समस्या ये हुई की हर ताल पर पार्वती का नृत्य बेहतर होता और शिव हार जाते !
शिव के नृत्य का नाम ज्यादातर लोगों को पता ही है | देवाधिदेव का नृत्य जहाँ तांडव कहलाता है, वहीँ उसका प्रतिरूप जैसा पार्वती का नृत्य लास्य कहा जाता है | देवी के रुकने तक शिव जीत नहीं पाए थे |
अगर कभी, कहीं, किसी जगह, किसी के बोलना बंद ना करने के कारण आप नहीं जीत पाते तो ज्यादा अफ़सोस मत कीजिये | #महाशिवरात्रि ये भी याद दिला देती है कि वामांगी के रुकने से पहले तक, अर्धनारीश्वर भी नहीं जीत पाए थे |
अगर आप राष्ट्रवादियों की बहस देख रहे हैं तो एक बार रामेश्वरम याद कीजिये | प्रभु रामेश्वरम् के ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्री राम ने रामसेतु बनाने से पहले की थी | जब महावीर हनुमान ने उनके द्वारा दिए गए शिव लिंग के इस नाम का मतलब पूछा तो भगवान् राम ने शिव जी के नवीन स्थापित ज्योतिर्लिंग के स्वयं द्वारा दिए इस नाम की व्याख्या में कहा-
रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर: ||
मतलब जो श्री राम के ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं |
बाद में जब रामसेतु बनने की कहानी भगवान् शिव, माता सती को सुनाने लगे तो बोले के प्रभु श्री राम ने बड़ी चतुराई से रामेश्वरम नाम की व्याख्या ही बदल दी | माता सती ने पुछा, ऐसा कैसे ? तो देवाधिदेव महादेव ने रामेश्वरम नाम की व्याख्या करते हुए उच्चारण में थोड़ा सा फ़र्क बताया-
राम ईश्वरो यस्य सः रामेश्वरः ||
यानि श्री राम जिसके ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं |
अगर आप अब्राहमीक रिलिजन के चश्मे से देखेंगे तो ये कहानी जरा अजीब सी लग सकती है | इसे एक भारतीय की नजर से देखिये | आप अगर आस पास के किसी भगवान राम के मंदिर में जाकर बैठें और अपने मोबाइल फोन में वहां शिव तांडव का ऑडियो बजा दें तो क्या होगा ? क्या कोई टोकेगा कि राम के मंदिर में शिव की महिमा क्यों बजा रहे हो ? नहीं, उल्टा हो सकता है दो चार और लोग सुनने के लिए, हाथ जोड़े, पांच मिनट रुक जाएँ |
अब्राहमिक रिलिजन के चश्मे से ये अजीब होता है, क्योंकि वहां एक इश्वर का भाव होता है | विदेशियों को ये अजीब लगेगी, लेकिन भगवान राम को पूज्य मानने के साथ साथ शिव की महिमा सुनना, वो भी उस शिव तांडव में जो कि राम के शत्रु रावण की रचना है, बिलकुल नार्मल बात है | हमारे लिए एक का समर्थक होने का मतलब दुसरे का विरोधी हो जाना नहीं होता है |
ये कहानी वर्चुअल वर्ल्ड यानि आभासी दुनिया की बहसों में भी याद रखिये | यहाँ अगर आप दो घनघोर किस्म के राईट विंग, अर्थात हिन्दुत्ववादी महानुभावों को किसी मुद्दे पर धुर विरोधी भी देखते हैं तो गलतफहमी बिलकुल मत पाल लीजिये | अलग अलग शहरों में बैठे ये लोग शायद रोज़ ही एक दुसरे से फ़ोन पर बात करते हैं | कमेंट में किसी मुद्दे पर बात के साथ इनबॉक्स में कोई और चर्चा चल रही होगी | राम-रावण जैसे विपरीत धुरी पर दिखते हुए भी ये शिव के मुद्दे पर फिर एक होंगे |
बाकी थोड़ी छेड़-छाड़ से अब्राहमिक, बदल कर अब्रह्मिक, यानि ब्रम्ह के आभाव से ग्रस्त हो जाता है | अन्दर के तत्व को अनदेखा करके. बाहर के खोल पर ध्यान मत टिकाइए |
पशु पक्षियों जैसा ही, मनुष्यों के पास भी शुरुआत में सिर्फ बोली थी, कोई भाषा नहीं थी। धीरे धीरे सभ्यता के विकास के साथ शब्दों के स्वरुप तय हुए, व्याकरण तैयार हुआ और अलग अलग सभ्यताओं के लिए अलग अलग भाषाएँ बनी। अभी के भारत की संस्कृति ही देख लें तो कई भाषाओँ के साथ साथ कई बोलियाँ भी मिल जायेंगी। जैसे ये भाषा के साथ होता है, वैसे ही ये संगीत के लिए भी होता है। एक सरगम और संगीत के एक प्रारूप के तय होने के साथ ही लोकगीतों से अलग, भारतीय शास्त्रीय संगीत का उदय हुआ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का भी भेद होता है, राग कम हैं और रागिनियाँ अधिक। रागों के लिए भाव भी होते हैं, परिवार भारत में महत्वपूर्ण इकाई है, इसलिए हर राग का परिवार भी होता है। धर्म से भारतीय संस्कृति के जुड़े होने के कारण हर राग, नटनागर यानि भगवान शिव से भी जुड़ा है। पांच राग भगवन शिव के पांच मुख से निकले बताये जाते हैं। सुबह की शुरुआत का राग भैरव (भूमि तत्व), हिंडोल (आकाश तत्व), दीपक (अग्नि तत्व), श्री (वायु तत्व) और मेघ (जल तत्व) शिव के हैं और छठा मालकौंस राग पार्वती का है।
उन्नीसवीं सदी के शुरुआत तक यही राग-रागिनी पद्दति भारतीय शास्त्रीय संगीत के वर्गीकरण के लिए इस्तेमाल होती थी। ऐसे चार मत होते थे, जिनमें से ये भरत मत के रागों के नाम हैं। भरत मत में हरेक राग की पांच पांच रागिनियाँ, आठ पुत्र राग और आठ वधु मानी जाती थी। हनुमत मत में भी रागों के नाम यही थे। रागिनियों, पुत्र रागों इत्यादि की गिनती बदलती थी। शिव मत के अनुसार भी छः राग माने जाते थे। प्रत्येक की छः-छः रागिनियाँ तथा आठ पुत्र मानते थे। इस मत में राग भैरव, राग श्री, राग मेघ, राग बसंत, राग पंचम, और राग नट नारायण होते थे।
सन 1810-20 के बीच इस पद्दति की आलोचना शुरू हुई और सुधार की जरूरत महसूस की जाने लगी। ये काम पचास साल बाद शुरू होना था। पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का जन्म ही 1860 में हुआ (देहावसान-1936)। अधिकांश उत्तर भारत में जो आधुनिक थाट पद्दति आज जानी जाती है, उसके जन्मदाता पंडित भातखंडे थे। उन्होंने 1640 के आस पास के कर्णाटक शैली के विद्वान पंडित वेंकटमखिन की शैली के आधार पर वर्गीकरण का प्रयास शुरू किया। इस काम के लिए वो उत्तर भारत के कई शास्त्रीय घरानों में घुमते रहे।
बरसों की मेहनत से वो दस प्रमुख थाट में भारतीय शास्त्रीय संगीत को बाँट पाए। बिलावल, कल्याण, खमाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी, आसावारी, भैरवी और तोडी थाट में आज संगीत बांटा जा सकता है। जैसे मालकौंस को भैरवी थाट में डाल सकते हैं, राग श्री को पूर्वी थाट में डालेंगे। थाट को परिवार के उपनाम की तरह समझिये। जैसे किसी के घर शादी का कार्ड देने आया कोई व्यक्ति पारिवारिक उपनाम से फलां परिवार को सादर आमंत्रण लिखकर छोड़ सकता है। उस आमंत्रण के उपनाम से कई लोग पहचाने जाते हैं इसलिए परिवार के कई लोगों में से एक या कुछ व्यक्ति चले जायेंगे।
थाट का बनना गणित पर आधारित है। सरगम के सात स्वरों में से पांच को विकृति दी जा सकती है, यानि कोमल और तीव्र स्वर भी होते हैं। इस तरह कुल सात शुद्ध स्वर और पांच विकृत, बारह स्वर होते हैं। अब अगर पर्मुटेशन-कॉम्बिनेशन इस्तेमाल करें और सा, पा को केवल शुद्ध स्वर, और रे, गा, म, धा, और नी का एक (कोमल या तीव्र) रूप इस्तेमाल करें तो कुल 32 स्वरुप बनेंगे। अपनी तलाश में पंडित भातखंडे को जो दस थाट प्रबल दिखे, उन्होंने उसमें ही सबको बांटा।
ये जो ज्यादातर थाट हैं, इनसे मिलते जुलते से पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत के चर्च मॉड भी मिल जाते हैं। एक अंतर ये कहा जा सकता है कि हाई ऑक्टेव पिच के लिए चर्च बच्चों का बंध्याकरण करके उनसे गवाता था। ऐसे एक गाने लायक किन्नर बच्चे के बंध्याकरण में कई बच्चों की मौत भी हो जाती थी। बाद में ये वहशी हरकत ख़त्म हुई तो ऑपेरा के कई हिस्से ही दोबारा तैयार करने पड़े। जो पुरानी पद्दति थी उसे गाने लायक बचपन से बंध्याकरण करके बच्चों को आज तैयार नहीं किया जा सकता। खुशकिस्मती से भारतीय परम्पराओं में ऐसी अमानवीयता नहीं होती, इसलिए रागों को गायब नहीं करना पड़ा।
ये जरूर है कि एक ही व्यक्ति का इतने वृहदाकार संगीत शास्त्र पर काम पूर्ण हो, ऐसा थोड़ा कठिन है। इस वजह से पंडित भातखंडे का वर्गीकरण भी पूरा नहीं माना जाता। दस थाटों में उनके वर्गीकरण पर आगे क्या प्रयास हुए, उन प्रयासों को कितनी सफलता मिली ये भी बहस का मुद्दा हो जाता है। अब आप अगर यहाँ तक पढ़ चुके हैं तो देखिये कि जो बात संगीत पर होनी थी वो धर्म से शुरू होकर गणित तक पहुँच गई। इतने पे भी स्थिति ये है कि हम ये बताने की कोशिश करें कि राग हिंडोल मारवा थाट का है, या कल्याण थाट का, तो एक बड़ी बहस खड़ी हो सकती है।
तो आप ये भी समझ सकते हैं कि माला की तरह, धर्म से होते हुए, संगीत को जोड़ते जो गणित तक पहुंचा है, वो सबको जोड़ता धागा ही संस्कृति है। हरेक हिस्से की अपनी महत्ता है, साथ आये तो और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
किसी व्यक्ति, वस्तु या भाव के होने या ना होने की बात करते समय हमरा मतलब क्या होता है? किसी चीज़ का Existance या Non-existance हम कैसे तय करते हैं? हम उसे आयामों यानी Dimensions में देखते हैं। आम तौर पर तीन आयाम: लम्बाई, चौड़ाई और उंचाई में।
लेकिन इतने भर से उसका होना तय नहीं होता। वो कितने समय के लिए था ये भी तय होना चाहिए। कोई भी चीज़ कितने Length, breadth, height की थी, इसके अलावा वो कितने time exist कर रही थी ये बताये बिना उसका होना सिद्ध नहीं होता।
कोई वस्तु इतने मीटर लम्बी, इतनी चौड़ी, इतनी ऊँची थी कह भर देने से उसका होना तय नहीं होता। वो कितने समय के लिए दुनियां में थी वो भी उसका होना तय करती है। भाव या विचार जैसी Intangible चीज़ों के लिए लम्बाई-चौड़ाई जैसी चीज़ें होती ही नहीं इसलिए उनके होने के लिए समय का होना और भी जरूरी है।
अगर समय होगा तो क्रम भी होगा। जैसे पहली, दूसरी, या पांचवी सीढ़ी पार किये बिना आप दसवीं पर नहीं पहुँचते। या लिखने का काम कर लूं फिर कागज़-कलम लाता हूँ, ये नहीं किया जा सकता। कागज़ और कलम यानि लिखने की जरूरी चीज़ें पहले क्रम में आएँगी लिखना उसके बाद ही होगा।
समय होना मतलब क्रम में सबको बांधना, ये जितना विज्ञान का विषय होता है उतना ही हिन्दुओं के #अद्वैत दर्शन का भी होता है। आचार्य वसुगुप्त को स्वप्न के जरिये ऐसे ही सिद्धांतों के “शिव सूत्र” की जानकारी मिली जो उन्होंने कश्मीर जाकर एक शिला पर उकेरे हुए ढूंढ लिए।
शिव सूत्र संख्या में सतहत्तर हैं और उनकी व्याख्या के लिए आचार्य वसुगुप्त ने “स्पंद कारिका” की रचना की। स्पंद कारिका शिव को समय से परे अर्थात अक्रम घोषित करती है। वो समय से बंधे नहीं इसलिए पहले और बाद में का बंधन भी उनपर लागू नही होता।
✍निरँजनप्रसाद पारीक
🌷वेदिका🌷
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