भारत और विश्व की प्राचीन भाषा सँस्कृत

2005 में भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जब इलाहाबाद आये तो महर्षि भारद्धाज आश्रम देखने की इच्छा प्रगट की। उन्होंने बताया कि महर्षि भारद्धाज ने सर्वप्रथम विमान शास्त्र की रचना की थी। महाकुंभ के अवसर पर देश-देशांतर के सभी विद्धान प्रयाग आते थे और इसी भारद्धाज आश्रम में महीने दो महीने रहकर अपने-अपने शोध और खोज पर चर्चा करते थे जिससे उनको जनकल्याण में लगाया जा सके। सोशल नेटवर्किंग साइट पर जब किसी ने अरब के किसी व्यक्ति का नाम देते हुए कहा कि सबसे पहले इन्होंने विमान की खोज की तो आश्‍चर्य हुआ।

प्राचीन काल में वेद, मंत्र, उपनिषद किसने लिखे ? उन भारतीयों ने अपने से अधिक अपनी कृति से प्रेम किया होगा। यही कारण है कि अपना नाम प्रकाशित नहीं किया। जबकि आप एक छोटी सी कविता भी लिख दें तो छपवाना चाहेंगे।
“ वैज्ञानिकाश्चं: कपिल: कणाद: सुश्रुतस्त था।
 चरको भास्क्राचार्यो वाराहमिहिर: सुधी:।
नागार्जुनो भरद्धाजो बसुर्वुध:।
ध्येायो वेंकटरामश्चस विज्ञा रामानुजादय:।

पश्चिम में एक धारणा प्रचलित की गई है कि भारत में साहित्य में अच्छा कार्य हुआ है। रामायण, महाभारत, मेघदूत और शकुंतला विलुप्त नहीं हुए। संगीत के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई लेकिन भारत वैज्ञानिक प्रगति नहीं कर पाया। पश्चिम के लोग कहते हैं कि आपके साधु-संत आंखे मूंद लेते हैं और ब्रम्हांड देख लेते हैं। दुनियां जानती है कि शून्य का आविष्कार भारत में हुआ। इससे पहले यूरोप के अंदर दशमलव पद्धति नहीं अपनाई गई थी। रोमन लिपि में गिनती की जाती थी जिसमें अंको को ।, ।।, ।।। का प्रयोग किया जाता रहा। इसमें यदि हजार से ऊपर की संख्या लिखनी हो तो समस्या खड़ी हो जाती है और गुणा-भाग करना तो और भी कठिन कार्य है । 13वीं शताब्दी तक यूरोप में गुणा-भाग विश्वाविघालय स्तर पर पढ़ाया जाता था। जोड़ने और घटाने के साथ ही गुणा-भाग का कार्य सिर्फ भारत में होता था क्योंकि हमारे यहां जीरो का आविष्कार हो चुका था। जीरो रहने से किसी भी अंक का मान दस गुना बढ़ जाता है। जीरो को सारे अरेबिया ने भारत से प्राप्त किया। अरेबिया से यूरोप जाकर वह इंटरनेशनल फार्म आफ अरेबिक न्यूमरल कहा जाने लगा। आज भी अरब के लोग शून्य को हिंदसा कहते हैं तो यूरोप में इसे अरेबिक न्यूमरल कहा जाता है।

आर्यभट्ट ने पाई रेशो का मान चौथी  शताब्दी में निकाला कि पाई का मान 3.14159256 होता है। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने रेडियस, वृत्त, डायामीटर आदि का भी उल्लेख किया है। महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि योजनानां सहस्रेद्धि द्धिशत द्धियोजनम्, वह प्रकाश जो एक निमिष इतना चलती है उसको नमस्कार है।
 महाभारत के समय रास्ते की माप योजन से होती थी, चार कोस का एक योजन और दो मील का एक कोस। इस प्रकार आठ मील का एक योजन होता था।
प्रकाश के बारे में शांति पर्व में कहा गया है कि दो हजार दो सौ योजन अर्ध निमिष में यात्रा करता है, उसे नमस्कार है। निमिष अर्थात आदमी जितने समय में पलक झपकाता है या एक निमिष अर्थात सेकेंड का छठां भाग और अर्ध निमिष सेकेंड का बारहवां हिस्सा जिसमें प्रकाश अपनी दूरी तय करता है। अब इस तरह से जोड़ करें तो प्रकाश की गति लगभग दो लाख मील प्रति सेकेंड है। जो आज वैज्ञानिक मानते हैं वह वही है जो महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया।

इसी प्रकार पृथ्वी की आयु की गणना भी भारतीयों ने अपने अनुसार कर लिया था कि पृथ्वी की आयु दो सौ करोड़ वर्ष है। हांलाकि कैल्वीन की गणना से लेकर रेडियो एक्टिविटी की गणना के बाद वैज्ञानिक अब इस निष्कर्ष पर आ गये हैं कि पृथ्वी की आयु दो सौ करोड़ वर्ष ही है। भारतीयों ने कहा ब्रम्हा के एक हजार साल कलियुग है तो दो हजार वर्ष द्वापर, तीन हजार वर्ष त्रेता और चार हजार साल का सतयुग होता है। अब यदि हिसाब लगायें तो सतयुग के संधिकाल के दोनो ओर चार-चार सौ वर्ष और कलियुग के दोनो ओर सौ-सौ वर्ष का संधिकाल होता है। पुराण के अनुसार तो एक महायुग बारह हजार साल का होगा। यह बारह हजार वर्ष ब्रम्हा जी का एक वर्ष है। मानव का एक वर्ष ब्रम्हा जी का एक दिन होता है। ब्रम्हा जी का एक वर्ष मानव का 360 साल हुए तो संधिकाल जोड़ने पर ब्रम्हा के 1200 साल का कलियुग हुआ। तो कलियुग का समय निकालने के लिये 1200 में 360 का गुणा कर दें तो मानव के चार लाख बतीस हजार वर्ष आते हैं। इस हिसाब से पृथ्वी की आयु आज के वै‍ज्ञानिकों की खोज के समतुल्य हो जाती है।

पाइथागोरस से काफी पहले ही बौधायन ने यज्ञ वेदियों को लेकर समकोण त्रिभुज पर कार्य किया और अनेक बातें प्रगट की। वहीं भाष्काराचार्य ने सरफेस आफ द स्फीपयर का अध्ययन किया और कहा कि एक वृत्त का क्षेत्रफल 4 पाई आर स्कवायर होगा। हालांकि यह तो बिना डिफरेंसियल कैलकुलस के निकल ही नहीं सकता। तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि भाष्काराचार्य को डिफरेंसियल कैलकुलस का ज्ञान रहा होगा।
मेडिकल साइंस में सुश्रुत और चरक ने काफी कार्य किया और शल्‍य चिकित्सा की प्रारंभिक जानकारी इनके ग्रंथों से मिलती है। शल्य क्रिया में कौन-कौन से उपकरण काम आते हैं ? इसका वर्णन सुश्रुत ने पहले ही कर दिया था। मोतियाबिंद से लेकर प्लानस्टिक सर्जरी तक में पहल भारत ने हजारों साल पहले ही कर दिया था।
एक हजार साल पुराना दिल्ली का लौह स्तंभ भारत के स्टेानलेस स्टील की खोज को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है। जिसकी खोज अब जाकर दुनिया ने की है। जब पुरु और सिकंदर की भेंट हुई तो सिकंदर ने पुरु से भेंट में भारत वर्ष का लोहा मांगा ताकि वह उनसे तलवार बना सके और जब वह दुनिया के कुछ देशो में लड़ने गया तो उसके सैनिक ललकार कर कहते थे सावधान मेरी तलवार भारत के इस्पात से बनी है, मेरी यह शमशीर एक बार में सिर को अलग कर देगी।
वस्त्रों के मामले में कहा जाता है कि भारतीय मलमल 200 काउंट से ऊपर का बनता था और आज कंप्यूटर भी 150 काउंट से अधिक का मलमल नहीं बना पाता।

महर्षि भारद्धाज ने सबसे पहले विमान शास्त्र की रचना की। इसी तरह अगस्त संहिता में भी कई प्रकार के वैज्ञानिक ज्ञान की चर्चा की गई है। क्वांटम मेकेनिक और रिलेटिवीटी का सिद्धांत आने से काफी पहले ही हमारे वैज्ञानिकों ने कहा कि "या पिण्डे सो ब्रह्माण्डे" अर्थात जो ब्रह्माण्ड में है वही हमारे पिण्ड में है। दुर्भाग्य से प्राचीन भारत के इस ज्ञान-विज्ञान के बारे में जिसे जानना चाहिये वे संस्कृत नहीं जानते और जो संस्कृत जानते हैं वे विज्ञान के बारे में नहीं जानते। जब तक इन दोनो का संगम नहीं होता अनेक तथ्य ऐसे ही दबे रह जायेंगे।

क्या आप जानते हैं कि भारत वर्ष के इन गाँवों में आज भी संस्कृत बोलते हैं लोग ?
संस्कृत संस्कार देने वाली भाषा है… अत: उसके नित्य उच्चारण से व्यक्ति के जीवन जीने की शैली अधिक भारतीय हो जाती है, उच्च आदर्शों के निकट पहुँचने में सहायक बनती है…

आज देश में ऐसे अनेक गाँवों में लोगों की आपसी बोलचाल की भाषा संस्कृत बन चुकी है। इन गाँवों में दैनिक जीवन का सम्पूर्ण वार्तालाप सिर्फ संस्कृत में ही किया जा रहा है।

ऐसे ग्रामों में सबसे महत्वपूर्ण नाम है कर्नाटक के मुत्तुर व होसहल्ली और मध्य प्रदेश के झिरी गाँव का, जहाँ सही अर्थों में संस्कृत जन-जन की भाषा बन चुकी है।

इन ग्रामों में लगभग 95 प्रतिशत लोग संस्कृत में ही वार्तालाप करते हैं। मुतरु, होसहल्ली व झिरी के अलावा मध्य प्रदेश के मोहद और बधुवार तथा राजस्थान के गनोडा भी ऐसे ग्राम हैं जहाँ दैनिक जीवन का अधिकांश वार्तालाप संस्कृत में ही किया जाता है।

सिर्फ एक-दूसरे का हालचाल जानने के लिए ही नहीं बल्कि खेतों में हल चलाने, दूरभाष पर बात करने, दुकान से सामान खरीदने और यहाँ तक कि नाई की दुकान पर बाल कटवाते समय भी संस्कृत में ही वार्तालाप देखने को मिलता है।


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