भारत का शल्य चिकित्सा विज्ञान


भारत के महान ऋषि आचार्य शुश्रुत की शल्यक्रिया पर एक चिँतन

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    छठी सदी ईसापूर्व से पहले का एक व्यक्ति शरीर की एक-एक सूक्ष्मता को समझने और समझाने के लिये  इस तरह प्रतिबद्ध था कि अपने अनुसंधान के लिये लावारिस शवों की तलाश में रहता था। उसके छात्र मृत शरीर की प्रप्ति होने के पश्चात पहले उसका निरीक्षण करते तथा फिर बहते हुए पानी में घास-फूस उपर से डाल कर रख दिया करते जिससे कुछ समय बाद बाह्य-चर्म निकालने में सुविधा हो और भीतरी अंग-प्रत्यंग का अन्वेषण-परीक्षण किया जा सके।* *परम्परावादी समाज क्या ऐसे शोधकर्ताओं को सजता से स्वीकार कर सकता था? बहुत कम लोग सुश्रुत को जानते हैं जिन्हें वैश्विक दृष्टिकोण से चिकित्सा विज्ञान का जनक कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं है। अन्वेषक और शिक्षक ही तो था सुश्रुत, धनवंतरी की परम्परा का यह काशी निवासी वैद्य चाहता तो परिपाटी पर चलता हुआ अब तक अर्जित पादप-बूटियों के ज्ञान से सम्पन्नता पूर्वक जीवन जी सकता था। तत्कालीन समाज में शव की चीरफाड करना कोई सम्मानजनक कार्य तो हर्गिज नहीं कहलाता होगा। विश्वामित्र का वंशज कहे जाने वाले सुश्रुत के लिये क्या तब सामाजिक बहिष्कार अथवा अस्पृष्य माने जाने की चुनौती नहीं रही होगी? विवरण मिलता है कि अपने छात्रों को पहले फलों पर शल्य करने का अभ्यास कराने के पश्चात सुश्रुत उन्हें शवों पर प्रयोग करने के लिये प्रेरित करते थे।*

  सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा के अपने सम्पूर्ण ज्ञान को स-विस्तार संस्कृत भाषा में पुस्तकाकार दिया जिसे आज हम सुश्रुत संहिता के नाम से जानते हैं। पाँच खण्डों में विभक्त इस कृति में एकसौबीस अध्याय हैं साथ ही उत्तरतंत्र नाम से इसमें परिशिष्ठ सम्मिलित किया गया है जिसके अंतर्गत काय चिकित्सा के सढसठ पृथक अध्याय हैं। सुश्रुत संहिता में वर्णित कुछ शल्य चिकित्सा में प्रयोग आने वाले औजारों का विवरण महत्वपूर्ण है। इस श्रेणी में चौबीस प्रकार के स्वास्तिक यंत्र (पक्षियों की मुखाकृति के क्रोस प्रवृत्ति/आकार के औजार) प्राथमिकता से आते हैं जो शल्य प्रक्रिया के दौरान पकड हासिल करने तथा टूटी हड्डियों को निकालने, अंग-भागों को पृथक करने के कार्य में लिये जाते थे। कौवे की चोच जैसा स्वास्तिक यंत्र काकमुख इसी तरह सिंहमुख, व्याघ्रमुख, मार्जा मुख, गृद्धमुख श्रेणी के औजार निर्मित किये जाते थे। दो प्रकार के संदंश यंत्रों का विवरण है जिनसे शल्य प्रक्रिया के दौरान शरीर की त्वचा अथवा माँस आदि को निकाला जाता था। दो प्रकार के तालयंत्र निर्मित किये गये थे जिनका प्रयोग नाक तथा कान की शल्यक्रिया के लिये किया जाता था। इसी कडी में बीस प्रकार के नलीयुक्त नाडीयंत्र, अट्ठाईस प्रकार के शलाकायंत्र (सलाई की तरह के औजार जो मांस आदि को कुरेदने/छेदन करने के कार्य में आते थे), पच्चीस प्रकार के उपयंत्रों का भी विवरण मिलता है जिनका शल्य क्रिया के दौरान विविध प्रयोग किया जाता था। हड्डी अथवा मांस को काटने के लिये सुश्रुत ने बीस प्रकार के धारदार शस्त्रों का उल्लेख अपने शास्त्र में किया है। शल्य चिकित्सा ज्ञान को प्राचीन भारत में जो ऊँचाई प्राप्त हुई थी इसका अनुमान इस बात से ही लग जाता है कि सूक्ष्म चिकित्सा के लिये बांस, बाल, पशुओं के नाखून आदि से अनेक अनुशस्त्र भी उस दौर में निर्मित किये जाते थे। भारतीय होने के कारण आज आप गर्व कर सकते हैं कि दुनिया के किसी भी बडे से बडे अस्पताल के ऑपरेशन टेबल पर पड़े औजार सुश्रुत के बताये और डिजाईन किये गये औजारों की ही नकल हैं।*

  औजार ही नहीं अपितु शल्य चिकित्सा के प्रकारों का भी जितना सूक्ष्म वर्णन सुश्रुत संहिता में प्राप्त होता है वह आधुनिक मेडीकल साईंस की पुस्तकों के समक्ष भी आईना रखने में सक्षम है। सुश्रुत आठ प्रकार की शल्य चिकित्सा के विषय में बताते हैं अर्थात छेद्य (छिद्र करने के लिये), भेद्य (भेदन करने के लिये), लेख्य (पृथक करने के लिये), वेध्य (शरीर से हानिकारक द्रव्य बाहर निकालने के लिए), ऐष्य (घाव ढूंढने के लिए), अहार्य (शरीर की हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए), विश्रव्य (द्रव बाहर निकालने के लिए) तथा  सीव्य (घाव/चीरा आदि सिलने के लिए)। इतना ही नहीं उन्होंने सूत, सन, रेशम, बाल आदि का प्रयोग कर घाव/चीरा आदि को न केवल सिलने की सलाह दी है अपितु पट्टी बाँधने के लिए सन, ऊन, रेशम, कपास, पेड़ों की छाल आदि का प्रयोग बताया है। सुश्रुत संक्रमण के जानकारी भी रखते थे अत: चिकित्सा के दौरान एवं रोगी की साफ-सफाई पर वे विस्तार से अपने ग्रंथ में बात करते हैं। वे कृति में चिकित्सक की आवश्यकता क्यों है का राजा को बोध भी कराते हैं तथा अधिकाधिक व्रणितागार (अस्पताल के लिये संहिता में प्रयुक्त शब्द) निर्माण का सुझाव भी प्रदान करते हैं। सुश्रुत आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी के जनक माने जाते हैं।*

   सुश्रुत संहिता में अनेक ऐसे विवरण प्राप्त होते हैं जिनमें नाक, कान, होंठ के साथ साथ शरीर के विभिन्न अंगों का प्रत्यावर्तन अथवा प्लास्टिक सर्जरी किये जाने का उल्लेख मिलता है। उस दौर में शल्य चिकित्सा करते हुए रोगी को एनेस्थीसिया देने (प्राय: औषधियुक्त मदिरा) का भी प्रावधान है।
  

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