16सँस्कार -भारतीयजीवनपद्धति

-------#वैदिक_साहित्य_और_विज्ञान - ------
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----------------------- #जीवन_विज्ञान -----------------------
#16_संस्कारो_का_विज्ञान
भारत मे प्राचीनकाल से ही जीवन जीने की एक सुव्यवस्थित प्रणाली विद्यमान रही है जिससे हमेशा हमेशा के लिए हमारा शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न रहा करता था।
विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध , विद्यारंभ, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।
गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है।
------------- #कर्ण_छेदन/ #कर्णवेध_संस्कार -------------
कान छेदना केवल बेटियों के लिए ही नहीं बल्कि बेटों के लिए भी ​अनिवार्य बताया गया है , वैज्ञानिक भाषा में इसे एक्यूपंक्चर कहा जाता है, जिसके अनुसार एक्यूपंक्चर से व्यक्ति का दिमाग शांत होता है और उसके दिल की गति सामान्य रहती है, जबकि धार्मिक तथ्य के अनुसार कर्णक्षेदन से व्याधियां ( बीमारी) दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है, ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर होता है।
#वैज्ञानिक_दृष्टिकोण -
वैज्ञानिक दृष्टि के अनुसार कान छिदवाने से व्यक्ति के ब्रेन में ब्‍लड सर्कुलेशन सही प्रकार से होता है। और ब्रेन में ब्‍लड का सही तरह से सर्कुलेशन होने से आपकी बौद्धिक योग्यता बढती है। इसीलिए पहले के समय में गुरुकुल में जाने वाले हर विद्यार्थी को कान में छेद करना पड़ता था, जिससे उसकी दिमागी क्षमता में वृद्धि होती थी और विद्यार्थी बेहतर ज्ञान की प्राप्ति करता था। कान छिदवाने से व्यक्ति को लकवे की शिकायत कभी नही होती, साथ ही ये पुरुषो के अंडकोष को और वीर्य को संचित करने में भी लाभदायक होता है। कान छिदवाने से कई प्रकार के इन्फेक्शन, हाइड्रोसील और पुरुषों में ज्यादातर देखी जाने वाली हर्निया की समस्या भी दूर होती है। इसके अलावा व्यक्ति के चेहरे पर चमक और कान्ति आती है और व्यक्ति के रूप में निखार आता है कान में छेद करवाना महिलाओं और पुरुष दोनों के लिए फायदेमंद होता है। क्‍योंकि कान के बीच की सबसे खास जगह जिसे प्रजनन के लिए जिम्मेदार माना जाता है, न केवल पुरुषों के लिए फायदेमंद होता है, बल्कि महिलाओं की अनियमित पीरियड्स की समस्या को भी दूर करता है।कान का छेद वाले हिस्‍से पर दो बहुत जरूरी एक्‍यूप्रेशर प्‍वाइंट्स मौजूद होते हैं, मास्‍टर सेंसोरियल और दूसरा मास्‍टर सेरेब्रल। यह प्‍वाइंट सुनने की क्षमता को सही बनाये रखने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक्‍यूप्रेशर एक्‍सपर्ट के अनुसार टिनिटस के लक्षणों से राहत पाने के लिए भी कान छिदवाना बहुत अच्‍छा रहता है।
#संस्कार -
महान ऋषि सुश्रुत के अनुसार कान के निचले हिस्‍से (ear lobes) में एक प्‍वाइंट होता है, जो मस्तिष्क के बाएं और दाएं गोलार्द्ध से कनेक्ट होते हैं। जब इस प्‍वाइंट पर छेद किये जाते हैं तो, यह दिमाग के हिस्‍से को एक्‍टिव बनाते हैं। इसलिये जब बच्‍चे का दिमाग बढ रहा हो, तभी उसके कान छिदवा देने चाहिये। हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है। यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।
कर्णवेध संस्कार के पीछे विशेष कारण है जिसकी पुष्टि विज्ञान भी करता है ।।
---------------------- #विद्यारंभ_संस्कार --------------------
प्रचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था, आज भी बसंत पंचमी के दिन बच्चे से पहली बार अक्षर लिखवाया जाता है ,शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार शुरू होता है और इसके बाद बच्चा अपनी पढाई शुरू करता है। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।
#विज्ञानम -
वैज्ञानिक अनुसन्धान से पता चला है कि बच्चा भी उसी तरह सीखता है, जिस तरह पालतू तोता-मैना सीखते हैं।
वे आस-पास के लोगों की बोली की नक़ल करते हैं और भाव-भंगिमाओं से प्रेरित होते हैं।
अमरीका के पैनसिल्वेनिया स्थित फ़्रैंकलिन एंड मार्शल कॉलिज के माइकेल गोल्डश्टाइन और उनके साथी शोधकर्त्ताओं ने प्ले सेशंज़ यानी क्रीड़ा-काल के दौरान आठ महीनों के शिशुओं और उनकी माताओं के व्यवहार का अध्ययन किया। पहले तो उन्होंने शिशुओं की मुँह से निकलने वाली आवाज़ों और उन ध्वनियों को लेकर की गई उनकी माताओं की प्रतिक्रियाओं का सामूहिक अध्ययन किया।फिर उन्होंने माँओं के दो वर्ग बनाये।
एक वर्ग की माँओं से कहा गया कि वे अपने बच्चे की आवाज़ों के जवाब में मुस्कुराएँ, उसके निकट जाएँ और उसे छुएँ या अपने साथ लगाएँ ।दूसरे वर्ग की माताओं की प्रतिक्रियाओं को सहज रूप से होने दिया गया।
शोधकर्त्ताओं ने इन सबका विश्लेषण करने पर पाया कि पहले वर्ग के शिशुओं ने जल्दी बोलना सीखा। इन शिशुओं की आवाज़ों में वर्णमाला के अक्षर अपेक्षाकृत ज़्यादा थे और वे व्यंजनों से स्वरों की ओर जाने में भी तेज़ी दिखा रहे थे। यहाँ ब्रिटेन की एग्ज़िटर यूनिवर्सिटी के डॉ. ऐलन स्लेटर ने भी इस निष्कर्ष की पुष्टि की है।
वह कहते हैं, "अगर बच्चों को बोलते समय प्रोत्साहन न दिया जाए, तो वे देर से भाषा सीखते हैं। बच्चों के बोलने के जवाब में बोलना चाहिए और मुस्कुराना, उन्हें छूना और हाव-भाव आदि का प्रदर्शन करना चाहिए"।
#संस्कारम - जब बालक/ बालिका की आयु शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाय, तब उसका विद्यारंभ संस्कार कराया जाता है। इसमें समारोह के माध्यम से जहाँ एक ओर बालक में अध्ययन का उत्साह पैदा किया जाता है, वही अभिभावकों, शिक्षकों को भी उनके इस पवित्र और महान दायित्व के प्रति जागरूक कराया जाता है कि बालक को अक्षर ज्ञान, विषयों के ज्ञान के साथ श्रेष्ठ जीवन के सूत्रों का भी बोध और अभ्यास कराते रहें।
ठीक वैसा ही जैसा आज के वैज्ञानिको ने रिसर्च किया है ।।
आज के आधुनिक वैज्ञानिक जो निष्कर्ष निकाल रहे है वो सदियो से हमारी प्रथाओं में जीवित है बस हम उनपे किसी विदेशी ठप्पे का इंतज़ार कर रहे है ।।
#विशेष - हमारे तत्वेत्ता, मनीषियों ने षोडश संस्कारों का प्रचलन किया था। चिन्ह-पूजा के रूप में प्रचलन तो उनका अभी भी है पर वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक बोध और प्रशिक्षण के अभाव वे मात्र कर्मकाण्ड और फिजूलखर्ची बनकर रह गये हैं।प्राप्त करना है, उसके लिए जिन श्रेष्ठ व्यक्तियों की आवश्यकता बड़ी संख्या में पड़ती है, उनके विकसित करने के लिए यह संस्कार प्रक्रिया अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।। प्रत्येक विचारशील एवं भावनाशील को इससे जुड़ना चाहिए ।।यहां कर्णवेध और विद्यारम्भ सँस्कार पर प्रकाश डाला गया,, इन सब पर एक बहुत बडा लेख तैयार किया जाएगा जिसे पुनः एक व्यवस्थित फोरम मे आप पढ सकेंगे ऐसा प्रयास रहेगा।

✍ निरँजनप्रसाद पारीक
                                   वेदिका

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