सनातनधर्म की अवधारणाएं



सनातन ........
विश्व का महान और प्राचीनतम धर्म
जिसे हिँदू धर्म के रूप मे जाना जाति है।
भारतीयसँविधान के अनुसार हिँदू एक विचारधारा है।
जो स्थानीय संस्कृति और परंपरा की देन है।

 सभी विचारधाराओं का सम्मान करना
 जरूरी है, क्योंकि धर्म का किसी तरह की विचारधारा से संबंध नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ ‘ब्रह्म ज्ञान’ से संबंध है।

 ब्रह्म ज्ञान अनुसार प्राणीमात्र सत्य है।
सत्य का अर्थ ‘यह भी’ और ‘वह भी’ दोनों ही सत्य है।
*सत् और तत् मिलकर बना है सत्य।*

यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि
जो व्यक्ति जिस भी धर्म में जन्मा है,
वह उसी धर्म को सबसे प्राचीन और महान मानेगा।

सत्य को जानने का प्रयास कम ही लोग करते हैं।
हजारों वर्ष की लंबी परंपरा के कारण हिन्दू धर्म में कई तरह के भ्रम फैल गए हैं।
 इन भ्रमों के चलते सनातन हिन्दू धर्म पर कई तरह के सवाल उठते रहे हैं।
 हम आपको बताएंगे कि वे कौन से भ्रम हैं और आखिर उनमें कितनी सचाई है।
 ऐसे ही 16 तरह के भ्रमों की जानकारी को जानना जरूरी है।

*हिन्दू धर्म के खिलाफ फैला भ्रम :*

हिन्दू धर्म के बारे में हजारों तरह के भ्रम हिन्दुओं और गैर-हिन्दुओं में फैले हैं।
मसलन कि यह एक बुतपरस्त धर्म है,
इसके अनेक धर्मग्रंथ हैं,
ये लोग परमेश्वर को छोड़कर 33 करोड़ देवी और देवताओं की पूजा करते हैं।
यह भी कि इनके धर्म में कोई नियम और व्यवस्था नहीं है,
धर्म का कोई संस्थापक नहीं है और कोई एक धर्मगुरु भी नहीं है,
जो हिन्दुओं को हांक सके।

यह भी माना जाता है कि
इनके सैकड़ों त्योहार हैं कि
समझ में नहीं आता कि कौन-सा धर्मसम्मत त्योहार है।

इसके अलावा कई तरह की पूजा और प्रार्थना पद्धतियां हैं।
समझ में नहीं आता कि किस तरह से पूजा या प्रार्थना करें।

इसके अलावा हिन्दू लोग गाय और कई प्रकार के जंतुओं जैसे नाग, बंदर, बैल आदि को पवित्र समझकर उनकी भी पूजा करते हैं,
जो कि एक जाहिलाना कृत्य है।

दूसरी ओर वे ग्रह और नक्षत्रों जैसे निर्जीव की भी पूजा करते हैं, जो घोर पाप है।
तीसरी ओर हिन्दुओं में मनुवादी वर्ण व्यवस्था है जिससे समाज में कई तरह की असमानता पैदा होती है।

उक्त तरह की हजारों धारणाएं लोगों के मन में रहती हैं। लेकिन जैसे एक आम हिन्दू अन्य धर्मों की सचाई नहीं जानता उसी तरह एक गैर-हिन्दू भी हिन्दू धर्म के बारे में कम ही जानता है।

वह वही बात करता है, जो समाज में प्रचलित है
या उसने देखी और सुनी है।

🙏🏻🙏🏻आओ हम जानते हैं
16 तरह के भ्रमों के बारे में…


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*एकेश्वर या सर्वेश्वरवादी धर्म :*
 कहते हैं कि हिन्दू धर्म एकेश्वरवादी धर्म नहीं है।
 यह 33 करोड़ देवी- देवताओं की पूजा करने वालों का धर्म है।

इसका जवाब है कि पहले वेद, उपनिषद और गीता पढ़ो।

*एक भी जगह यह नहीं लिखा है कि ईश्वर अनेक हैं और देवी-देवता 33 करोड़ हैं।*

 देवताओं की संख्‍या 33 कोटि (प्रकार) की बताई गई है,
 न कि 33 करोड़।

ब्रह्म ही सर्वोच्च सत्ता है और त्रिदेव या देवी-देवता भी उस ब्रह्म के प्रति नतमस्तक हैं।


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*ब्रह्म ही सत्य है :*
वेद और उपनिषदों में सत्य को हजारों तरीके से समझाया गया है।
ब्रह्म ही सत्य है।
ब्रह्म शब्द का कोई समानार्थी शब्द नहीं है।

जब तक आप ‘ब्रह्म दर्शन’ को नहीं समझेंगे तब तक आप भ्रम में ही रहेंगे।
किसी भी धर्म की प्रार्थना या पूजा पद्धति से इस सत्य को नहीं जाना जा सकता।
ब्रह्म क्या है यह समझने के लिए उपनिषदों का गहन अध्ययन जरूरी है और ब्रह्म को जानने का एकमात्र उपाय योग और ध्यान है।


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*षड्दर्शन :*
हिन्दू धर्म में इस ब्रह्म को जानने के लिए कई तरह के मार्गों का उल्लेख किया गया है।

वेदों के इन मार्गों के आधार पर ही 6 तरह के दर्शन को लिखा गया जिसे षड्दर्शन कहते हैं।
वेद और उपनिषद को पढ़कर ही

6 ऋषियों ने अपना दर्शन गढ़ा है। ये 6 दर्शन हैं-
*1. न्याय, 2. वैशेषिक, 3. सांख्य, 4. योग, 5. मीमांसा और 6. वेदांत।*

हालांकि पूर्व और उत्तर मीमांसा मिलाकर भी वेदांत पूर्ण होता है।

उक्त दर्शन के आधार पर ही दुनिया के सभी धर्मों की उत्पत्ति हुई फिर वह नास्तिक धर्म हो या आस्तिक अर्थात अनीश्‍वरवादी हो या ईश्‍वरवादी।
इसका यह मतलब नहीं कि वेद दोनों ही तरह की विचारधारा के समर्थक हैं।

वेद कहते हैं कि भांति-भांति की नदियां अंत में समुद्र में मिलकर अपना अस्तित्व खो देती हैं उसी तरह ‘ब्रह्म दर्शन’ को समझकर सभी तरह के विचार, संदेह, शंकाएं मिट जाती हैं।

वेद और उपनिषद के ज्ञान को किसी एक आलेख के माध्यम से नहीं समझाया जा सकता।

*‘जिसे कोई नेत्रों से भी नहीं देख सकता, परंतु जिसके द्वारा नेत्रों को दर्शन शक्ति प्राप्त होती है, तू उसे ही ईश्वर जान।*

*नेत्रों द्वारा दिखाई देने वाले जिस तत्व की मनुष्य उपासना करते हैं वह ईश्‍वर नहीं है।*

*जिनके शब्द को कानों के द्वारा कोई सुन नहीं सकता, किंतु जिनसे इन कानों को सुनने की क्षमता प्राप्त होती है उसी को तू ईश्वर समझ।*

*परंतु कानों द्वारा सुने जाने वाले जिस तत्व की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है।*

*जो प्राण के द्वारा प्रेरित नहीं होता किंतु जिससे प्राणशक्ति प्रेरणा प्राप्त करता है उसे तू ईश्‍वर जान।*

*प्राणशक्ति से चेष्‍टावान हुए जिन तत्वों की उपासना की जाती है, वह ईश्‍वर नहीं है।’*
 ।।4, 5, 6, 7, 8।। -केनोपनिषद।।


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*एक ही धर्मग्रंथ है वेद :*
वेद के अलावा हिन्दू धर्म का कोई अन्य धर्मग्रंथ नहीं है।
वेद के विस्तृत ज्ञान को विषयानुसार पूर्व काल में 4 हिस्सों में विभाजित किया किया।

वेदों के अंतिम भाग या अरण्यक को उपनिषद कहते हैं।

अंतिम भाग होने के कारण इसे ही वेदांत कहा जाता है।
वेद को श्रु‍ति ग्रंथ कहा जाता है अर्थात जिन्होंने इसे सुना।

वेद को छोड़कर सभी अन्य ग्रंथों को स्मृति ग्रंथ कहा जाता है अर्थात सुनी हुई बातों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्मरण रखना और उसे समय तथा काल के अनुसार ढालना।

*इस तरह श्रुति और स्मृति दो तरह के ग्रंथ हो गए।*

इसमें से *सिर्फ श्रुति ही धर्मग्रंथ है*
 और श्रुति का मतलब वेद।

श्रु‍ति ग्रंथ वेद अपरिवर्तनशील है, क्योंकि इनकी रचना मूल छंद और काव्य के रूप में इस तरह के विशेष ध्वनि शब्दों से हुई है जिसके कारण इनमें संशोधन या परिवर्तन करना असंभव है।

वैदिक ज्ञान को अच्छे तरीके से षड्दर्शन और स्मृतियों के माध्यम से समझाया गया है।

वेदों का सार या कहें कि
निचोड़ उपनिषद है।

उपनिषद लगभग 1,000 से ज्यादा है।
*उपनिषदों का सार और निचोड़ ‘ब्रह्मसूत्र’ है।*

*ब्रह्मसूत्र का भी सार और निचोड़ गीता है।*


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*वेदों का केंद्र है- ब्रह्म।*
 ब्रह्म को ही ईश्वर, परमेश्वर और परमात्मा कहा जाता है।

सभी तरह की स्मृतियां, सूत्र, उपवेद आदि सभी वेदों को अच्छे से समझने और समझाने वाले ग्रंथ हैं।

अब जहां तक सवाल पुराण, रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों का है तो वे भारत के इतिहास ग्रंथ हैं।

श्लोक : श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।

तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा।।

भावार्थ :
*अर्थात जहां कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहां वेद की बात ही मान्य होगी।*
 -वेदव्यास



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*धार्मिक कानून :*
 दुनिया में सबसे पहले धार्मिक कानून की किताब मनु स्मृति को लिखा गया था।

इस पर आधारित ही दुनियाभर के धार्मिक कानूनों का निर्माण हुआ। इस्लाम में भी शरिया धार्मिक कानून ही है।

यह नियम की पुस्तक है, जैसा कि ओल्ड टेस्टामेंट या न्यू टेस्टामेंट में है।
दोनों टेस्टामेंटों को मिलाकर बाइबिल बनती है।
ओल्ड टेस्टामेंट को यहूदियों का ग्रंथ तनख कहा जाता है और न्यू को इंजील।


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*धर्म संस्थापक :*
 अक्सर यह कहा जाता है कि इस धर्म का कोई संस्थापक नहीं।
सही भी है, क्योंकि धर्म का कोई संस्थापक नहीं हो सकता।

समाज, संगठन और राष्ट्र का कोई संस्थापक हो सकता है।
फिर भी आपकी तसल्ली के लिए बता देते हैं कि
*वेदों का ज्ञान परमेश्वर से त्रिदेवों ने सुना फिर 4 ऋषियों ने सुना ये 4 ऋषि हैं- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।*

ये ही हैं मूल रूप से प्रथम संस्‍थापक।
इसके बाद त्रेता में भगवान श्रीराम ने और द्वापर में भगवान कृष्ण ने उक्त ज्ञान और धर्म को फिर से स्थापित किया।


गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं…

।।यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌।। (4-7)

भावार्थ : हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं।

माना जाता है कि
*कलियुग में विष्णु के 9वें अवतार भगवान बुद्ध ने फिर से सनातन धर्म की स्थापना की है।*

विद्वान या शोधकर्ता मानते हैं कि बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म का नया रूप है,
लेकिन कुछ लोग इससे इत्तेफाक रखते हैं
क्योंकि भगवान बुद्ध को अनीश्वरवादी माना जाता है।



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*मूर्ति पूजकों का धर्म नहीं :*
वैसे ब्रह्म (ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा) की कोई मूर्ति या तस्वीर नहीं बनाई जा सकती है।

वेद मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं,
लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जो व्यक्ति मूर्ति पूजा करता है उसे नास्तिक माना जाए
या उसे किसी प्रकार की सजा दी जाए
या उसे भ्रम में जीने वाला व्यक्ति कहा जाए।

इस तरह की वैमनस्यता वाले विचार के विरुद्ध है वेदांत।

*सभी की भावनाओं का सम्मान करना और सह-अस्तित्व की भावना रखना ही सनातन धर्म की शिक्षा है।*

श्लोक : ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति 30 नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।’ -यजुर्वेद 32वां अध्याय।

अर्थात
*जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रों से महिमा की गई है उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं।*
*अग्‍नि‍ वही है, आदि‍त्‍य वही है, वायु, चंद्र और शुक्र वही है, जल, प्रजापति‍ और सर्वत्र भी वही है।*
*वह प्रत्‍यक्ष नहीं देखा जा सकता है।*
*उसकी कोई प्रति‍मा नहीं है। उसका नाम ही अत्‍यं‍त महान है।*
*वह सब दि‍शाओं को व्‍याप्‍त कर स्‍थि‍त है।*
 -यजुर्वेद

केनोपनिषद में कहा गया है कि हम जिस भी मूर्त या मृत रूप की पूजा, आरती, प्रार्थना या ध्यान कर रहे हैं वह ईश्‍वर नहीं है, ईश्वर का स्वरूप भी नहीं है।

जो भी हम देख रहे हैं- जैसे मनुष्‍य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, आकाश आदि। फिर जो भी हम श्रवण कर रहे हैं- जैसे कोई संगीत, गर्जना आदि।

फिर जो हम अन्य इंद्रियों से अनुभव कर रहे हैं, समझ रहे हैं उपरोक्त सब कुछ ‘ईश्वर’ नहीं है, लेकिन ईश्वर के द्वारा हमें देखने, सुनने और सांस लेने की शक्ति प्राप्त होती है।

इस तरह से ही जानने वाले ही ‘निराकार सत्य’ को मानते हैं। यही सनातन सत्य है।

स्‍पष्‍ट है कि‍
*वेद के अनुसार ईश्‍वर की न तो कोई प्रति‍मा या मूर्ति‍ है और न ही उसे प्रत्‍यक्ष रूप में देखा जा सकता है।*


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*मूर्ति पूजा करनी चाहिए या नहीं? :*
 मूर्ति पूजा को जो पाप जैसा कुछ समझते हैं, समझने में वे स्वतंत्र हैं।
जो व्यक्ति मूर्ति पूजा कर रहा है उसको भला-बुरा कहना या मार देना पाप है कि पुण्य?

जिनका मूर्ति में विश्वास हो वे उसका पूजन करें, जिनको विश्वास न हो वे न करें।

प्राचीनकाल से ही ये दोनों तरह के मार्ग चले आ रहे हैं।
सीधे और सरल लोगों के लिए मूर्ति पूजा ही भक्ति का एक तरीका है।

मूर्ति पूजा के दौरान शंख, घंटे, घड़ियाल, कपूर, धूप, दीप, तुलसी, चंदन, गुड़-घी, पंचामृत, आचमन, प्रार्थना आदि का प्रयोग करने से मन को अपार शांति मिलती है।

सकारात्मक भाव का निर्माण होता है।
मस्तिष्क अलग तरीके से कार्य करने लगता है और किसी के भी प्रति द्वेष और हिंसा का भाव नहीं रहता है।

मूर्ति पूजा का मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व समझना जरूरी है।

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*प्रकृति पूजा क्यों :*
प्राचीनकाल से ही दुनिया की सभी सभ्यताओं में प्रकृति पूजा का प्रचलन रहा है।
 प्रारंभ में प्रकृति की शक्तियों से डरते थे तो उसके प्रति प्रार्थना या पूजा करते थे।
लेकिन जैसे-जैसे समझ बढ़ी तो प्रकृति के महत्व को समझा तो फिर उसके प्रति प्रेमपूर्ण प्रार्थना करने लगे।
प्रकृति पूजा करना कोई पाप नहीं है।
लेकिन हम इसकी पूजा क्यों करें?
यह तो निर्जीव है जबकि वैदिक रहस्य यह कहता है कि प्रकृ‍ति से प्रार्थना करने से हमारे हर तरह के रोग और शोक जादुई तरीके से मिट जाते हैं।

ईश्वर की प्रकृति के प्रति अच्छा और सकारात्मक भाव होना जरूरी है।
प्रकृति ही शक्ति है और वही देने वाली जगद्जननी है।
उसी के आधार पर हमारा जीवन संचालित होता है।
हमें इस प्रकृति में ही जन्म लेना है और इसकी मिट्टी में ही मिल जाना है।
हम स्वयं भी प्रकृति का हिस्सा हैं।
वेदों में प्रकृति को ईश्वर का साक्षात रूप मानकर उसके हर रूप की वंदना की गई है।

इसके अलावा आसमान के तारों और आकाश मंडल की स्तुति कर उनसे रोग और शोक को मिटाने की प्रार्थना की गई है।

धरती और आकाश की प्रार्थना से हर तरह की सुख-समृद्धि पाई जा सकती है।


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*ऋषियों ने समझा प्रकृति का महत्व :*
प्राचीन ऋषि-मुनियों, विद्वान त्रिकालदर्शी महात्माओं एवं तपस्वियों ने प्राणीमात्र के उत्थान एवं सुख-शांति के लिए प्रकृति के रहस्य को खोजा था।

उन्होंने ही औषधियों, पीपल, नीम, बरगद आदि के अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए धर्म से प्रकृति की आराधना को जोड़ा है।

वेदों में प्रकृति का गुणगान गाया गया है
तो इसीलिए , कि प्रकृति जीवनदायिनी है।

पर्यावरण की रक्षा और हमारी मांगों की पूर्ति के लिए प्रकृति से प्रार्थना जरूरी है।

प्रकृति की सुरक्षा और उसके प्रति सम्मान उसकी पूजा किए बगैर भी किया जा सकता है।
आज जरूरी है गंगा नदी को प्रदूषण से बचाना, जो करोड़ों भारतीयों की प्यास बुझाती है।

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*प्रकृति पूजा :*
 भारत एक कृषि प्रधान देश है। प्राचीनकाल से ही लोग कृषि पर आधारित जीवन-यापन करते आए हैं।
लोगों के लिए उनके खेत, पशु आदि ईश्‍वरतुल्य हैं।

इसी के चलते ऋतुओं के परिवर्तन पर भारत में स्थानीय लोगों द्वारा अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पर्व मनाए जाते हैं, जैसे छठ, संक्रांति, बसंत पंचमी, गोवर्धन पूजा, सरहुल पूजा, हड़ताली तीज, वट सावित्री, लोहड़ी आदि।


हिन्दू धर्म में चंद्र आधारित कैलेंडर में जितना शुक्ल और कृष्ण पक्ष के अलावा अमावस्या और पूर्णिमा का महत्व है
उसी तरह सूर्य आधारित कैलेंडर में संक्रांतियों का बहुत महत्व माना गया है।

सूर्य के उत्तरायन होने पर और फिर दक्षिणायन होने पर व्रत और पर्व मनाए जाते हैं।
*यह पूर्णत: वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक विषय है।*
*ज्योतिष के इस विज्ञान को समझना जरूरी है।*

प्रत्येक धर्म प्रकृति पर आधारित व्रत और उपवास का आयोजन करता है।

धर्म की शुरुआत में प्रकृति पूजा का ही महत्व था।
उक्त पूजा में कालांतर में जादू और टोनों का प्रयोग होने लगा।

जैसे-जैसे व्यक्ति की समझ बढ़ी उसने मूर्ति और प्रकृति की पूजा के वैज्ञानिक पक्ष को समझा और महत्व को भी समझा और फिर उसने उसे छोड़कर दैवीय शक्तियों की ओर ध्यान दिया।

थोड़ी और समझ बड़ी तब वह वेदों के ब्रह्म (परमेश्वर) की धारणा को भी समझने लगा।

।। अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितृणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ।।29।। -गीता

भावार्थ : हे धनंजय! नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं; पितरों में अर्यमा तथा नियमन करने वालों में यमराज हूं।


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*समाधि या पूर्वज पूजा :*
 आजकल हिन्दू कई दरगाहों, समाधियों और कब्रों पर माथा टेककर अपने सांसारिक हितों को साधने में प्रयासरत हैं, लेकिन क्या यह धर्मसम्मत है।
क्या यह उचित है?

यदि हिन्दू धर्म समाधि पूजकों का धर्म होता तो आज देश में लाखों समाधियों की पूजा हो रही होती, क्योंकि इस देश में ऋषियों की लंबी परंपरा रही है और सभी के आज भी समाधि स्थल हैं।

लेकिन आज ऐसे कई संत हैं जिनके समाधि स्थलों पर मेला लगता है।

भूतान्प्रेत गणान्श्चादि यजन्ति तामसा जना।

तमेव शरणं गच्छ सर्व भावेन भारत: -गीता।। 17:4, 18:62

अर्थात : भूत-प्रेतों की उपासना तामसी लोग करते हैं। हे भारत! तुम हरेक प्रकार से ईश्वर की शरण में जाओ।

गुरु या पूर्वज पूज्यनीय होते हैं, लेकिन प्रार्थनीय या ईश्‍वरतुल्य नहीं।
माता और पिता को ईश्‍वरतुल्य माना गया है,
लेकिन ये सभी ईश्वर तो नहीं हैं।
तब इनके प्रति आदर और सम्मान प्रकट करना जरूरी है,
क्योंकि यही धर्म की शिक्षा और धर्मसम्मत आचरण है।


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*नाग पूजा क्यों?*
सावन के महीने में शुक्ल पक्ष की पंचमी को नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है।
विदेशी धर्मों में नाग को शैतान माना गया है।

हालांकि नाग उतना बुरा नहीं है जितना कि आज का आदमी है। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि इसमें जीवन को पोषित करने वाले जीवनोपयोगी पशु-पक्षी, पेड़- पौधे एवं वनस्पति सभी को आदर दिया गया है।

जहां एक ओर गाय, पीपल, बरगद तथा तुलसी आदि की पूजा होती है,
वहीं अपने एक ही दंश से मनुष्य की जीवनलीला समाप्त करने वाले नाग की पूजा भी की जाती है।

इस विषधर जीव को शास्त्रों में देवतुल्य और रहस्यमय प्राणी माना गया है, लेकिन यह ईश्वर नहीं है।
इसकी विशेषता यह है कि यह मानव से अधिक बुद्धिमान और चीजों को होशपूर्वक देखने में सक्षम है।

*इसकी चेतना पर शोध किए जाने की आवश्यकता है।*

एक ओर जहां भगवान विष्णु शेषनाग की शैया पर शयन करते हैं
तो दूसरी ओर भगवान शिव नाग को गले में डाले रहते हैं।

नागों एवं सर्पों का सृष्टि के विकास से बहुत पुराना संबंध रहा है।
देवों और दानवों द्वारा किए गए सागर मंथन के समय सुमेरु पर्वत को मथनी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया था।

वर्तमान में नाग पूजा के नाम पर इस बेचारे जीव का अस्तित्व संकट में है।


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*वर्ण व्यवस्था :*
आज भी अमेरिका में गोरे और काले का भेद है।

छुआछूत का मामला प्रत्येक देश और धर्म में पाया जाता है।

प्राचीनकाल में चिकित्सा का अभाव था।

ऐसे में संभ्रांत और जानकार लोग ऐसे लोगों से दूर ही रहते थे जिनसे संक्रमण फैलने का खतरा हो।

लेकिन यह व्यवहार कब जातिगत व्यवस्था में बदल गया, यह शोध का विषय है।


*जातियों के प्रकार :*
 प्रारंभिक काल में जातियां वे होती थीं,
जो रंग-रूप, खान-पान और आचार-विचार से समान हों
अर्थात
वे समान या लगभग समान प्राणियों के समूह का प्रतिनिधित्व करती थीं।

तो
*जातियों के प्रकार अलग होते थे ,  जिनका सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं था।*


*जातियां होती थीं- द्रविड़, मंगोल, शक, हूण, कुशाण, निग्रो, ऑस्ट्रेलॉयड, काकेशायड्स आदि।*

*आर्य जाति नहीं थी बल्कि उन लोगों का समूह था, ... जो सामुदायिक और कबीलाई संस्कृति से निकलकर  , सभ्य होने के प्रत्येक उपक्रम में शामिल थे  , और जो सिर्फ वेद पर ही कायम थे।*


वर्ण का अर्थ होता है रंग।
प्रारंभिक काल में एक ही रंग के लोगों का समूह होता था, जो अपने समूह में ही रोटी-बेटी का संबंध रखते थे।

इस समूह की धारणा को तोड़ने और राज्य कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए राजा वैवस्वत मनु ने एक व्यवस्था को लागू किया गया जिसे वर्ण व्यवस्था माना गया।

हालांकि उस काल में कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति और स्थान से हो वह राज्य व्यवस्था में अपनी योग्यता अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या दास बन सकता था,

जैसे कि आज चाहे तो किसी भी जाति का व्यक्ति ज्योतिष, सैनिक, किसान या सेवक बनने के लिए स्वतंत्र है।

कालांतर में यही रंग बन गया कर्म और बाद में जाति।


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*छुआछूत :*
 अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण-दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है,
लेकिन यह बिलकुल ही असत्य है।
इस मुद्दे पर धर्मशास्त्रों में क्या लिखा है?

यह जानना बहुत जरूरी है, क्योंकि इस मुद्दे को लेकर हिन्दू सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया गया है और किया जा रहा है।


दलितों को ‘दलित’ नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया,
इससे पहले ‘हरिजन’ नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया।
इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे, वे हिन्दू धर्म ने नहीं दिए।

*आज जो नाम दिए गए हैं, वे पिछले 60 वर्षों की राजनीति की उपज हैं*

*और इससे पहले जो नाम दिए गए थे, वे पिछले 900 सालों की गुलामी की उपज हैं।*


बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं,
जो आज दलित हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं या अब वे बौद्ध हैं।

बहुत से ऐसे दलित हैं, जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। यहां ऊंची जाति के लोगों को ‘सवर्ण’ कहा जाने लगा है।

*यह ‘सवर्ण’ नाम भी सनातन हिन्दू धर्म ने नहीं दिया।*

*मनु स्मृति, पुराण, रामायण और महाभारत ये हिन्दुओं के धर्मग्रंथ नहीं, इतिहास ग्रंथ हैं।*

 तुलसीदासकृत रामचरित मानस भी हिन्दू धर्मग्रंथ नहीं है।
यदि इन ग्रंथों में कहीं भेदभाव की भावना लिखी है तो यह वेदसम्मत नहीं है।

जो वेद, उपनिषद और गीतासम्मत नहीं है उसका सनातन हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं।


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*ग्रह-नक्षत्र की पूजा निषेध :*
क्या प्रचलित ज्योतिषी धारणा हिन्दू धर्म का हिस्सा है?
इसका जवाब है- नहीं।

आज का ज्योतिषी लोगों का भविष्य बताने और दुखों के टोटके बताने का कार्य करता है।

इस विद्या से व्यक्ति ईश्वर से कटकर ग्रह-नक्षत्रों और तरह-तरह के देवी-देवताओं को मानकर वहमपरस्त बन जाता है।

इससे उसके जीवन में सुधार होने के बजाय वह और भयपूर्ण और विरोधाभासी जीवन जीने लगता है।

महाभारत के दौर में राशियां नहीं हुआ करती थीं।
ज्योतिष 27 नक्षत्रों पर आधारित था, न कि 12 राशियों पर।
नक्षत्रों में पहले स्थान पर रोहिणी थी, न कि अश्विनी।

जैसे-जैसे समय गुजरा, विभिन्न सभ्यताओं ने ज्योतिष में प्रयोग किए और चंद्रमा और सूर्य के आधार पर राशियां बनाईं और लोगों का भविष्य बताना शुरू किया।

एक समय था जबकि लोग 12 नहीं 13 राशियों के आधार पर भविष्य बताते थे
लेकिन फिर 13 का भाग और विभाजन नहीं होने से उसे छोड़ दिया।


*वेद के 6 अंग हैं जिसमें 6ठा अंग ज्योतिष है।*
वेद अनुसार ज्योतिष खगोल विज्ञान है।

ज्योतिष को वेदों का विज्ञान माना गया है।

ऋग्वेद में ज्योतिष से संबंधित लगभग 30 श्लोक हैं, यजुर्वेद में 44 तथा अथर्ववेद में 162 श्लोक हैं।

यूरेनस को एक राशि में आने के लिए 84 वर्ष,
नेप्च्यून को 1,648 वर्ष तथा प्लूटो को 2,844 वर्षों का समय लगता है।

हमारे सौरमंडल में सभी ग्रहों को मिलाकर 64 चंद्रमा खोजे गए हैं और असंख्‍य उल्काएं सौर्य पथ पर भ्रमण कर रही हैं।

अभी खोज जारी है, संभवत: चंद्रमा और उल्काओं की संख्याएं बढ़ेंगी।


*वेदों में ज्योतिष के जो श्लोक हैं उनका संबंध मानव भविष्य बताने से नहीं, वरन ब्रह्मांडीय गणित और समय बताने से है।*

ज्यादातर नक्षत्रों पर आधारित और उनकी शक्ति की महिमा से है।

इससे मानव के वर्तमान और भविष्य पर क्या फर्क पड़ता है, यह स्पष्ट नहीं।

वेदों के उक्त श्लोकों पर आधारित आज का ज्योतिष पूर्णत: बदलकर भटक गया है।

कुंडली पर आधारित फलित ज्योतिष का संबंध वेदों से नहीं है।

भविष्य कथन के संबंध में वेद कहते हैं कि
आपके विचार,
आपकी ऊर्जा,
आपकी योग्यता और
आपकी प्रार्थना से ही
आपके भविष्य का निर्माण होता है

इसीलिए वैदिक ऋषि उस एक परम शक्ति ब्रह्म (ईश्वर) के अलावा प्रकृति के 5 तत्वों की भिन्न-भिन्न रूप में विशेष समय, स्थान तथा रीति से स्तुति करते थे।

जो भी ज्योतिष या ज्योतिष विद्या नकारात्मक विचारों को बढ़ावा देकर भयभीत करने का कार्य करते हैं,
उनका वेदों से कोई संबंध नहीं और जिनका वेदों से कोई संबंध नहीं,
उनका हिन्दू धर्म से भी कोई संबंध नहीं।

*इसीलिए वर्तमान ज्योतिष विद्या पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है।*

ज्योतिष अद्वैत का विज्ञान है।
इस विज्ञान को सही और सकारात्मक दिशा में विकसित किए जाने की आवश्यकता है।

यदि आप ज्योतिष विद्या के माध्यम से लोगों को भयभीत करते रहे हैं तो समाज अकर्मण्यता और बिखराव का शिकार होकर वेदोक्त ईश्वर के मार्ग से भटक जाएगा और कहना होगा कि भटक ही गया है।


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*हजारों त्योहार क्यों? :*
त्योहार, पर्व, व्रत और उत्सव सभी का अर्थ अलग-अलग है। सभी को खुशियों से मनाया जाता है।

ये सभी खुशियों के त्योहार ही हैं।
कुछ त्योहार धर्म का हिस्सा हैं तो कुछ भारतीय संस्कृति और स्थानीय परंपरा का।

हिन्दू त्योहार (Hindu festivals) कुछ खास ही हैं
लेकिन भारत के प्रत्येक समाज या प्रांत के अलग-अलग त्योहार, उत्सव, पर्व, परंपरा और रीति-रिवाज हो चले हैं।

हिन्दू त्योहार और पर्व में मकर संक्रांति, श्राद्ध पर्व, श्रावण मास, कार्तिक मास और राम, कृष्ण तथा हनुमान जयंती का अधिक महत्व है।


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*पूजा का एक एकमात्र तरीका संध्या वंदन :*
संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं।
संधिकाल में ही संध्या वंदन की जाती है।
वैसे संधि 5 वक्त (समय) की होती है,
लेकिन प्रात:काल और संध्‍याकाल-
उक्त 2 समय की संधि प्रमुख है
अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय।

*इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।*

*वेदज्ञ और ईश्‍वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं।*

*ज्ञानीजन इस समय ध्‍यान करते हैं।*

*भक्तजन कीर्तन करते हैं।*

पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं।

तब सिद्ध हुआ कि
*संध्योपासना के 4 प्रकार हैं-*
(1) प्रार्थना,
(2) ध्यान,
(3) कीर्तन और
(4) पूजा-आरती।

व्यक्ति की जिसमें जैसी श्रद्धा है, वह वैसा करता है।



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*क्या हिन्दू धर्म में पशु बलि प्रथा है?*
देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि का प्रयोग किया जाता है।

बलि प्रथा के अंतर्गत बकरा, मुर्गा या भैंसे की बलि दिए जाने का प्रचलन है।
सवाल यह उठता है कि क्या बलि प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा है?

”मा नो गोषु मा नो अश्वेसु रीरिष:।”- ऋग्वेद 1/114/8

अर्थ : हमारी गायों और घोड़ों को मत मार।


विद्वान मानते हैं कि
*हिन्दू धर्म में लोक परंपरा की धाराएं भी जुड़ती गईं  ,  और उन्हें हिन्दू धर्म का हिस्सा माना जाने लगा।*

जैसे वट वर्ष से असंख्य लताएं लिपटकर अपना ‍अस्तित्व बना लेती हैं लेकिन वे लताएं वक्ष नहीं होतीं उसी तरह वैदिक आर्य धर्म की छत्रछाया में अन्य परंपराओं ने भी जड़ फैला ली।

इन्हें कभी रोकने की कोशिश नहीं की गई।

बलि प्रथा का प्राचलन हिंदुओं के शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में ही देखने को मिलता है
लेकिन इसका कोई धार्मिक आधार नहीं है।

बहुत से समाजों में लड़के के जन्म होने या उसकी मान उतारने के नाम पर बलि दी जाती है तो कुछ समाज में विवाह आदि समारोह में बलि दी जाती है
जो कि अनुचित मानी गई है।

*वेदों में किसी भी प्रकार की बलि प्रथा कि इजाजत नहीं दी गई है।*

”इममूर्णायुं वरुणस्य नाभिं त्वचं पशूनां द्विपदां चतुष्पदाम्।

त्वष्टु: प्रजानां प्रथमं जानिन्नमग्ने मा हिश्सी परमे व्योम।।”

अर्थ : ”उन जैसे बालों वाले बकरी, ऊंट आदि चौपायों और पक्षियों आदि दो पगों वालों को मत मार।।” -यजु. 13/50

पशुबलि की यह प्रथा कब और कैसे प्रारंभ हुई, कहना कठिन है।

कुछ लोग तर्क देते हैं कि वैदिक काल में यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती है।

ऐसा तर्क देने वाले लोग वैदिक शब्दों का गलत अर्थ निकालने वाले हैं।

वेदों में पांच प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है।

*पशु बलि प्रथा के संबंध में 🙏🏻"पंडित श्रीराम शर्मा " की शोधपरक किताब ‘पशुबलि : हिन्दू धर्म और मानव सभ्यता पर एक कलंक’ पढ़ना चाहिए।*

” न कि देवा इनीमसि न क्या योपयामसि। मन्त्रश्रुत्यं चरामसि।।’- सामवेद-2/7

अर्थ : ”देवों! हम हिंसा नहीं करते और न ही ऐसा अनुष्ठान करते हैं, वेद मंत्र के आदेशानुसार आचरण करते हैं।”


वेदों में
ऐसे सैकड़ों मंत्र और ऋचाएं हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि
*हिन्दू धर्म में बलि प्रथा निषेध है और यह प्रथा हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं है।*

*जो बलि प्रथा का समर्थन करता है वह धर्मविरुद्ध दानवी आचरण करता है।*

ऐसे व्यक्ति के लिए सजा तैयार है। मृत्यु के बाद उसे ही जवाब देना के लिए हाजिर होना होगा।



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*जादू-टोना, तंत्र-मंत्र : क्या जादू टोना करना या मंत्र-तंत्र द्वारा अपने स्वार्थ सिद्ध करना या दूसरों को नुकसान पहुंचाना हिन्दू धर्म का अंग है?*

शैव, शाक्त और तांत्रिकों के संप्रदाय में इस तरह का प्रचलन बहुत है।
आजकल ज्योतिष भी तांत्रिक टोटके और उपाय बताने लगे हैं।

*ग्रह-नक्षत्र पूजा, वशीकरण, सम्मोहन, मारण, ताबीज, स्तंभन, काला जादू आदि सभी का वैदिक मत अनुसार निषेध है।*

ये सभी तरह की विद्याएं स्थानीय परंपरा का हिंसा हैं।
हालांकि अथर्ववेद में इस तरह की विद्या को यह कहकर दर्शाया गया है कि ऐसी विद्याएं भी समाज में प्रचलित हैं, जो कि वेद विरुद्ध हैं।

अथर्ववेद का लक्ष्य है लोगों को सेहतमंद बनाए रखना, जीवन को सरल बनाना और ब्रह्मांड के रहस्य से अवगत कराना।

टोने-टोटके से व्यक्ति और समाज का अहित ही होता है और सामाजिक एकता टूटती है।

ऐसे कर्म करने वाले लोगों को जाहिल समाज का माना जाता है।

अथर्ववेद को जादू-टोना, तंत्र-मंत्र का मूल मान जाता है लेकिन यह गलत धारणा पश्चिमी लोगों ने फैलाई है जिसका अनुसरण भारतीय लोगों ने भी किया है।

जादू-टोने के स्थान पर अथर्ववेद में आयुर्वेद का वर्णन मिलता है
कि किस प्रकार से विभिन्न रोगों का उपचार विभिन्न जड़ी-बुटिओं द्वारा किया जा सकता हैं।

अथर्ववेद में बताया गया है कि जिस घर में मूर्खों की पूजा नहीं होती है,
जहां विद्वान लोगों का अपमान नहीं होता है
बल्कि विद्वान और संत लोगों का उचित मान-सम्मान किया जाता है,
वहां समृद्धि और शांति होती है।

*कर्मप्रथान सफल जीवन जीने की सीख देता है अथर्ववेद।*


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*सती प्रथा :*
 सती प्रथा के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है।
सती माता के मंदिर भी बने हैं, खासकर ये मंदिर राजस्थान में बहुतायत में मिलते हैं।

सवाल उठता है कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में स्त्री के विधवा हो जाने पर उसके सती होने की प्रथा का प्रचलन है?

जवाब है नहीं।

हालांकि अब यह प्रथा बंद है लेकिन इस प्रथा में जीवित विधवा पत्नी को उसकी इच्छा से मृत पति की चिता पर जिंदा ही जला दिया जाता था।

विधवा हुई महिला अपने पति के अंतिम संस्कार के समय स्वयं भी उसकी जलती चिता में कूदकर आत्मदाह कर लेती थी।

इस प्रथा को लोगों ने देवी सती (दुर्गा) का नाम दिया।

*देवी सती ने अपने पिता राजा दक्ष द्वारा उनके पति शिव का अपमान न सह सकने करने के कारण यज्ञ की अग्नि में जलकर अपनी जान दे दी थी।*

शोधकर्ता मानते हैं कि
*इस प्रथा का भयानक रूप मुस्लिम काल में देखने को मिला जबकि मुस्लिम आक्रांता महिलाओं को लूटकर अरब ले जाते थे।*

*जब हिन्दुस्तान पर मुसलमान हमलावरों ने आतंक मचाना शुरू किया*
*और पुरुषों की हत्या के बाद महिलाओं का अपहरण करके उनके साथ दुर्व्यवहार करना शुरू किया ...*
*तो बहुत-सी महिलाओं ने उनके हाथ आने से, अपनी जान देना बेहतर समझा।*

और जब अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मावती को पाने की खातिर चित्तौड़ में नरसंहार किया था

तब उस समय
*अपनी लाज बचाने की खातिर पद्मावती ने सभी राजपूत विधवाओं के साथ सामूहिक जौहर किया था,*

तभी से सती के प्रति सम्मान बढ़ गया और सती प्रथा परंपरा में आ गई।

इस प्रथा के लिए धर्म नहीं, बल्कि उस समय की परिस्थितियां और लालचियों की नीयत जिम्मेदार थी।

हालांकि इस प्रथा को
बाद में बंद कराने का श्रेय राजा राममोहन राय के अलावा
कश्मीर के शासक सिकन्दर, पुर्तगाली गवर्नर अल्बुकर्क, मुगल सम्राट अकबर, पेशवाओं, लॉर्ड कार्नवालिस, लॉर्ड हैस्टिंग्स और लॉर्ड विलियम बैंटिक को जाता है।


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*पारंपरिक अंधविश्वास और टोटके :*
ऐसे बहुत से अंधविश्वास हैं,
जो लोक परंपरा से आते हैं जिनके पीछे कोई ठोस आधार नहीं होता।

ये शोध का विषय भी हो सकते हैं।
इसमें से बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो धर्म का हिस्सा हैं और बहुत-सी बातें नहीं हैं।
हालांकि इनमें से कुछ के जवाब हमारे पास नहीं है।

 उदारणार्थ-
* आप बिल्ली के रास्ता काटने पर क्यों रुक जाते हैं?

* जाते समय अगर कोई पीछे से टोक दे तो आप क्यों चिढ़ जाते हैं?

* किसी दिन विशेष को बाल कटवाने या दाढ़ी बनवाने से परहेज क्यों करते हैं?

* क्या आपको लगता है कि घर या अपने अनुष्ठान के बाहर नींबू-मिर्च लगाने से बुरी नजर से बचाव होगा?

* कोई छींक दे तो आप अपना जाना रोक क्यों देते हैं?

* क्या किसी की छींक को अपने कार्य के लिए अशुभ मानते हैं?

* घर से बाहर निकलते वक्त अपना दायां पैर ही पहले क्यों बाहर निकालते हैं?

* जूते-चप्पल उल्टे हो जाए तो आप मानते हैं कि किसी से लड़ाई-झगड़ा हो सकता है?

* रात में किसी पेड़ के नीचे क्यों नहीं सोते?

* रात में बैंगन, दही और खट्टे पदार्थ क्यों नहीं खाते?

* रात में झाडू क्यों नहीं लगाते और झाड़ू को खड़ा क्यों नहीं रखते?

* अंजुली से या खड़े होकर जल नहीं पीना चाहिए।

* क्या बांस जलाने से वंश नष्ट होता है।

ऐसे ढेरों विश्वास और अंधविश्वास हैं जिनमें से कुछ का धर्म में उल्लेख मिलता है

और उसका कारण भी लेकिन बहुत से ऐसे विश्वास हैं, जो लोक परंपरा और स्थानीय लोगों की मान्यताओं पर आधारित हैं।


🚩🔱
*कर्मकांड और संस्कार :*
 बहुत से ऐसे कर्मकांड और संस्कार हैं
जिनका हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं है।

*जैसे 16 संस्कार के अलावा भी लोग तरह-तरह के संस्कार और रीति-रिवाज मानते हैं।*

प्रत्येक समाज का अपना अलग रीति और रिवाज है।
जन्म-संस्कार के तरीके अलग, विवाह के तरीके अलग और अंतिम संस्कार के तरीके भी अलग।


🚩🔱
*क्या मृत्युभोज का धर्म में उल्लेख मिलता है?*

ऐसे बहुत से संस्कार, कर्मकांड, यज्ञकर्म और पूजा-पाठ हैं जिनका वैदिक हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं।
उनमें से ज्यादातर स्थानीय परंपरा का हिस्सा हैं।

लोग हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों को अपनाते हैं
लेकिन उसका शास्त्रसम्मत पालन नहीं करते उसमें स्थानीय परंपरा का प्रभाव ज्यादा रहता है।

*यज्ञ भी मात्र पांच तरह के होते हैं:- 1.ब्रह्मयज्ञ, 2.देवयज्ञ, 3.पितृयज्ञ, 4.वैश्वदेव यज्ञ, 5.अतिथि यज्ञ।*

इस तरह हमने देखा है कि
*कई राज्यों में एक ही त्योहार, व्रत, संस्कार, उत्सव, यज्ञ आदि को अलग अलग तरीके से प्रयोजित किया जाता या मनाया जाता है।*

*इस विभिन्नता का कारण लंबे काल की परंपरा और स्थानीय संस्कृति, भाषा आदि है।*



 सत्य सनातन धर्म की जय हो🚩🚩
                ✍  पँ.निरँजनप्रसाद पारीक
                        🌹 🌷वेदिका🌷🌹

Comments

  1. बहुत ही अच्छा संकलन, लेकिन साथ ही इन myths अंधविश्वास या विश्वास की सत्यता को और आगे विवेचन करे।
    धन्यवाद

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  2. इसी उद्देश्य को लेकर ये ब्लॉग बना है,,हम आपकी आशाओं पर खरा उतरने हेतु पूर्ण प्रयास करेंगे

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  3. इसी उद्देश्य को लेकर ये ब्लॉग बना है,,हम आपकी आशाओं पर खरा उतरने हेतु पूर्ण प्रयास करेंगे

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